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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 33 जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनुसार भूतवाद (दृष्टिवाद) में समस्त वाङ्मय का अवतार हो जाता है फिर भी मंदमति पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए ग्यारह अंगों की रचना की गई।' आगम विच्छेद के क्रम से भी यही फलित होता है कि ग्यारह अंग दृष्टिवाद या पूर्वो से सरल या भिन्न क्रम में रहे हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस चर्चा का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा __ "जब तक आचार आदि अंगों की रचना नहीं हुई थी, तब तक महावीर की श्रुत-राशि 'चौदह-पूर्व' या 'दृष्टिवाद' के नाम से अभिहित होती थी और जब आचार आदि ग्यारह अंगों की रचना हो गई, तब दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थापित किया गया। ......ग्यारह अंग पूर्वो से उद्धृत या संकलित हैं। इसलिए जो चतुर्दश-पूर्वी होता है, वह स्वाभाविक रूप से द्वादशांगवित् होता है। बारहवें अंग में चौदह पूर्व समाविष्ट हैं। इसलिए जो द्वादशांगवित् होता है, वह स्वभावत: ही चतुर्दशपूर्वी होता है। अत: हम निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आगम के प्राचीन वर्गीकरण दो ही हैं- 1. चौदह पूर्व और 2. ग्यारह अंग। द्वादशांगी का स्वतन्त्र स्थान नहीं है। यह पूर्वो और अंगों का संयुक्त नाम है। अंग-प्रविष्ट और अंगबाह्य भगवान महावीर के अस्तित्वकाल में गौतम आदि गणधरों ने पूर्वो और अंगों की रचना की थी, यह तथ्य सुस्पष्ट है। गणधरों के अतिरिक्त महावीर के अन्य शिष्यों ने ग्रन्थों का निर्माण किया या नहीं, यह प्रश्न उपस्थित है । भगवान् महावीर के चौदह हजार साधु शिष्य थे।' उनमें से अनेक केवली, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, वादी आदि विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न साधु थे, उन्होंने कोई ग्रन्थ नहीं लिखा हो यह सम्भव नहीं लगता। नंदी में उल्लेख प्राप्त है कि भगवान् महावीर के चौदह हजार प्रकीर्णक थे। ये पूर्वो और अंगों से अतिरिक्त थे। नंदी सूत्र में आगमों का अंग प्रविष्ट और अंग बाहय यह विभाग हो गया था। आगमों का अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य में भेद करने का मुख्य हेतु वक्ता का भेद है। भगवान् महावीर के मौलिक उपदेश का गणधरकृत संग्रह अंग एवं अन्य को अंगबाह्य कहा गया है। आगमों के ये दो भेद उनके वक्ता की अपेक्षा से ही हुए हैं। अपने स्वभाव के अनुसार प्रवचन की प्रतिष्ठा करना ही जिसका फल है, ऐसे परम शुभ तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकर ने जो कुछ कहा तथा उन वचनों को अतिशय-सम्पन्न, वचन ऋद्धि एवं बुद्धि-ऋद्धि से सम्पन्न तीर्थंकरों के गणधर शिष्यों ने धारण करके जिन ग्रन्थों की रचना की वे अंग-प्रविष्ट कहलाए तथा जिन आचार्यों का वचन सामर्थ्य एवं मतिज्ञान परम प्रकृष्ट था, आगम श्रुतज्ञान अत्यन्त विशुद्ध था, 1. विशेषावश्यकभाष्य I, गाथा 551: जइ वि य भूयावाए सव्वस्स वओमयस्स ओयारो। निज्जूहणा तहावि हुदुम्मेहे पप्पइत्थीय॥ 2. आचारांगभाष्य, पृ. 14 3. समवाओ, 14/4,समणस्सणंभगवओमहावीरस्सचउद्दससमणसाहस्सीओउक्कोसिआसमणसंपया होत्था। 4. नंदी, सूत्र 19, चोद्दस पइण्णगसहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स। 5. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, 1/20. वक्तविशेषाद द्वैविध्यम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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