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जैन आगम में दर्शन
उन गणधरों के पश्चात्वर्ती आचार्यों के द्वारा काल, संहनन, आयु आदि दोषों से शक्ति अल्प हो गई है जिन शिष्यों की, उन पर अनुग्रह करने के लिए जिन आगमों की रचना की उनको अंग-बाह्य कहा गया है।'
जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य के भेद के निरूपण में तीन हेतु . प्रस्तुत किए हैं
अंग-प्रविष्ट आगम वह है1. जो गणधरकृत होता है। 2. जो गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित होता है। 3. जो ध्रुव-शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होता है, सुदीर्घकालीन होता है। इसके विपरीत1. जो स्थविरकृत होता है, 2. जो प्रश्न पूछे बिना तीर्थंकर द्वार प्रतिपादित होता है, 3. जो चल होता है-तात्कालिक या सामयिक होता है- उस श्रुत का नाम अंग
बाह्य है। आचार्य अकलंक ने आरातीय आचार्यकृत आगम जो अंग आगमों में प्रतिपादित अर्थ से प्रतिबिम्बित होता है उसे अंगबाह्य कहा है।'
आगम जैन दर्शन के मूल आधार हैं। उनका संक्षिप्त परिचय यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग एवं भगवती का परिचय अपेक्षाकृत विस्तार से किया जाएगा। जो इस शोधग्रन्थ के मुख्य आधार-ग्रन्थ हैं। अन्य का प्रसंगानुकूल संक्षिप्त परिचय दिया जाएगा।
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1. सभाष्यतत्त्वार्थाधिंगमसूत्र, 1/20 : यद् भगवद्भिः सर्वजैः सर्वदर्शिभि: परमर्षिभिरर्हद्भिस्तत्स्वाभाव्यात्
परमशुभस्य च प्रवचनप्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थकरनामकर्मणोनुभावादुक्तं भगवच्छिष्यैरतिशयवद्भिरुत्तमातिशयवाग्बुद्धि-सम्पन्नैर्गणधरैर्दृब्धं तदंगप्रविष्टम् । गणधरानन्तर्यादिभिस्त्व त्यन्त-विशुद्धागमैः परमप्रकृष्टवाङ्मतिबुद्धिशक्ति- भिराचार्यैः कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहाय यत् प्रोक्तं तदङ्गबाह्यमिति। उद्धृत, आचारांग भाष्य भूमिका पृ. 15 (क) विशेषावश्यकभाष्य I, गाथा 550, गणहरथेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा धुव-चल-विसेसओ वा
अंगाणंगेसु नाणत्तं। (ख) वही, वृत्ति 550, गणधरकृतं, पदत्रयलक्षणतीर्थकरादेशनिष्पन्नं, ध्रुवं च यच्छूतं तदङ्गप्रविष्टमुच्यते, तच्च
द्वादशांगीरूपमेव । यत्पुन: स्थविरकृतं, मुत्कलार्थाभिधानं,चलंचतदावश्यकप्रकीर्णादिश्रुतमङ्गबाह्यमिति। । तत्त्वार्थवातिक I, (ले. आचार्य अकलंक, दिल्ली, 1993) सूत्र 1/20, आरातीयाचार्यकृताङ्गार्थ
प्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम् ।
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