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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 35 आचारांग जैनागम में बारह अंगों का प्रमुख स्थान हैं। उन बारह अंगों में पहला अंग आचारांग है।' कुछ आचार्यों ने आचारांग को स्थापना की दृष्टि से प्रथम एवं रचना की अपेक्षा बारहवां अंग माना है तथा कुछ आचार्यों ने इसे रचना तथा स्थापना दोनों ही दृष्टियों से प्रथम अंग के रूप में मान्यता दी है। आचारांग नियुक्ति के वक्तव्य के अनुसार तीर्थंकर तीर्थ प्रवर्तन के समय सर्वप्रथम आचार का तथा फिर आनुपूर्वी से शेष ग्यारह अंगों का प्रतिपादन करते हैं। गणधर भी इसी अनुक्रम से बारह अंगों की सूत्र रचना करते हैं। आचारांग में मोक्ष के उपायभूत आचार का वर्णन है अतः इसका बारह अंगों में प्रथम स्थान है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आचारांग को स्थापना की दृष्टि से प्रथम अंग माना है। अपने अभिमत को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है- "अंग पूर्वो से निर्मूढ हैं, इस अभिमत के आलोक में देखा जाए तो यही धारा संगत लगती है कि आचारांग स्थापना की दृष्टि से पहला अंग है, किन्तुरचना-क्रम की दृष्टि से नहीं ।' आगमों के व्याख्या साहित्य की दृष्टि से नियुक्ति का प्रथम स्थान है। नियुक्ति में उल्लिखित अवधारणाओं की प्राचीनता असंदिग्ध है। अन्य टीकाओं में भी दोनों मान्यताओं का उल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि आचारांग रचना एवं स्थापना दोनों ही दृष्टियों से प्रथम अंग है। आधुनिक विद्वान् अंग और पूर्व को एक-दूसरे पर आधारित नहीं मानते किंतु उनके अनुसार वे एक-दूसरे के समानान्तर चलते हैं। इस मन्तव्य से अंगों का पूर्वो से नि!हण हुआ है यह मान्यता विमर्शनीय हो जाती है। आकार एवं विषय-वस्तु आचारांग अंग की दृष्टि से पहला अंग है। इसके दो श्रुतस्कन्ध, पच्चीस अध्ययन, पचासी उद्देशन-काल, पचासी समुद्देशन काल, पद परिमाण से अठारह हजार पद, संख्येय, अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं।' 1. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र 89,सेणं अंगठ्ठया ए.. पदमे अंगे। 2. (क) नंदीमलयगिरिवृत्ति, पत्र 211, स्थापनामधिकृत्य प्रथममंगम्। (ख) स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रंच (समवायांग वृत्ति) पत्र 72, प्रथममंगं स्थापनामधिकृत्य, रचनापेक्षया तु द्वादशमंगम्। 3. (क) वही, पत्र 240 : गणधरा: पुन: सूत्ररचनां विदधत: आचारादिक्रमेण विदधति स्थापयन्ति वा। (ख) वही, पत्र 121, गणधरा: पुन: श्रुतरचनां विदधाना आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च। 4. आचारांगनियुक्ति, (ले. आचार्यभद्रबाह, बम्बई, 1928) गाथा 8,सव्वेसिंआयारो, तित्थस्सपवत्तणेपढमयाए। सेसाई अंगाई. एक्कारस आणुपुल्वीए॥ 5. वही, गाथा 8 वृत्ति, गणधरा अप्यनयैवानपूर्व्या सूत्रतया ग्रन्थन्ति। 6. वही, गाथा 9, आयारो अंगाणं, पढमं अंगंदुवालसण्हं पि। इत्थ य मोक्खोवाओ, एसय सारोपवयणस्स। 7. आचारांगभाष्य, भूमिका पृष्ठ 16 8. Schubring, Walther, The Doctrine of the Jains (Delhi, 1978)P.74 Hence it follows that the two series were parallel to, not dependent on, each other. 9. प्रकीर्णक समवाय सू. 89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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