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इसमें श्रमण निर्गन्थों के सुप्रशस्त आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग-योजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्तपान, उद्गमविशुद्धि, उत्पादन- विशुद्धि, एषणा विशुद्ध, शुद्धाशुद्धग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तपउपधान का निरूपण किया गया है । '
नंदी के अनुसार आचारांग में श्रमण निर्गन्थ के आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, शिक्षा, भाषा, अभाषा, चरण, करण, यात्रा, मात्रा - -वृत्ति का आख्यान किया गया है। 2
समवायांग एवं नंदी में वर्णित आचारांग की विषय-वस्तु प्रायः सदृशं है किन्तु कथंचित वैशिष्ट्य भी है । यथा आचारांग में भाषा का उल्लेख है वहीं नंदी में शिक्षा, भाषा एवं अभाषा का कथन है। नंदी ने चरण-करण शब्द का प्रयोग किया है जबकि समवायांग में चरण-करण के विषय का विस्तार किया गया है। इस प्रकार दोनों आगमों में आगत आचारांग की विषयवस्तु में परस्पर पूरकता परिलक्षित है। समवायांग में आचारांग के दो श्रुतस्कन्ध बतलाए गए हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि समवायांग में प्राप्त द्वादशांगी का विवरण भी ‘आयारचूला' की रचना का उत्तरवर्ती है । प्रारम्भ में आचारांग के दो श्रुतस्कन्ध नहीं थे । आचार्य भद्रबाहु ने आयारचूला की रचना की, उसके पश्चात् दो स्कन्धों की व्यवस्था की गई। मूलभूत प्रथम अंग का नाम आचारांग अथवा ब्रह्मचर्याध्ययन है। समवायांग में इसके अध्ययनों को 'नव ब्रह्मचर्य' कहा गया है । आचारांग नियुक्ति में इसे 'नव ब्रह्मचर्याध्ययनात्मक' कहा गया । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दो नाम हैं- आचाराग्र और आचार- चूला ।' प्रथम श्रुतस्कन्ध ही प्राचीन है तथा वही आचारांग नाम का प्रथम अंग है।
जैन आगम में दर्शन
आचारांग के अध्ययन
समवायांग में आचारांग के पच्चीस अध्ययनों का उल्लेख है।' यह आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्ध के सम्मिलित अध्ययनों की संख्या है। प्रथम श्रुतस्कन्ध आचारांग एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचार चूला के नाम से विश्रुत है । हमारे अध्ययन का आधार प्रथम श्रुतस्कन्ध है। इसके नौ अध्ययन हैं' आचारांग को ब्रह्मचर्याध्ययन भी कहा जाता है। समवायांग में नव ब्रह्मचर्य का उल्लेख है।' ये ही प्रथम अंग के नौ अध्ययन हैं। वर्तमान में आचारांग के आठ अध्ययन उपलब्ध हैं । जिनके ये नाम हैं - सत्थपरिण्णा, लोगविजय, सीओसणिज्ज, सम्मत्त, लोगसार, धुय, विमोक्ख एवं उवहाणसुयं ।
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1. प्रकीर्णक समवाय सू. 89
2. नंदी सूत्र 80
3. आचारांग भाष्यम्, भूमिका पृ. 17
4. प्रकीर्णक समवाय सूत्र 89
5. समवायांग वृत्ति, पत्र 101
6. समवाओ 9 / 3 णव बंभचेरा पण्णत्ता
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पणवीसं अज्झयणा... ।
तन्नवब्रह्मचर्याध्ययनत्मकस्य प्रथम श्रुतस्कन्धस्य प्रमाणम् ।
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