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आगम साहित्य की रूपरेखा
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विलुप्त महापरिक्षा अध्ययन __ समवायांग एवं आचारांग नियुक्ति में इन आठ अध्ययनों के साथ ही महापरिण्णा नामक अध्ययन का भी उल्लेख हुआ है। किन्तु वर्तमान में वह अनुपलब्ध है। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने तथ्यपूर्वक उसके विच्छेद का वर्णन करते हुए कहा है कि- आचारांग का महापरिज्ञा अध्ययन विच्छिन्न हो चुका है - यह श्वेताम्बर आचार्यों का अभिमत है। उस अध्ययन का विच्छेद वज्रस्वामी के पश्चात् तथा शीलांकसूरि से पूर्व हुआ है। नियुक्तिकार ने महापरिज्ञा अध्ययन का उल्लेख किया है तथा उसकी नियुक्ति भी की है।... इससे लगता है कि चर्चित अध्ययन उनके सामने था। चूर्णिकार के सामने भी महापरिज्ञा अध्ययन रहा है। उन्होंने शीलांकसूरि की तरह इसके विच्छेद होने का उल्लेख नहीं किया है किंतु इस अध्ययन के असमनुज्ञात होने का उल्लेख किया है।... महापरिज्ञा अध्ययन में अनेक मंत्र और विद्याओं का वर्णन था। उसे पढ़ाने का परिणाम अच्छा नहीं आया अत: तत्कालिक आचार्यों ने उसे असमनुज्ञात घोषित कर दिया-उसका पढ़ना, पढ़ाना निषिद्ध कर दिया। इस अध्ययन का पढ़ना, पढ़ाना जब निषिद्ध हो गया तब इसका विच्छेद हो गया हो, यह सम्भावित लगता है। आचारांग में प्रतिपादित दार्शनिक तथ्य
तत्त्वदर्शन की दृष्टि से आचारांग महत्त्वपूर्ण आगम है। जैनदर्शन में तत्त्वदर्शन का मूल आधार आत्मा है। आचारांग का प्रारम्भ आत्म-विवेचन से हुआ है। आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद दार्शनिक चिंतन के महत्त्वपूर्ण आयाम हैं। इनका उल्लेख भी प्रस्तुत आगम में हुआ है। आत्म-कर्तृत्व का सिद्धान्त दर्शन जगत् में बहुचर्चित रहा है। जैन दर्शन आत्म-कर्तृत्व के सिद्धान्त का परिपोषक है। आचारांग में आत्मकर्तृत्व का घोष पदे पदे मुखर है। 'पुरिसा तुममेव तुमं मित्तं' 5 'तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट पुरुष तू ही तेरा मित्र है, यह शल्य तूने ही किया है' -ये वाक्य आत्मा-कर्तृत्व के संगायक सूत्र हैं।
आत्माएं अनन्त हैं। उन सबका अस्तित्वपृथक्-पृथक् है। वे किसी एक ईश्वर की अंशभूत नहीं हैं और किसी ब्रह्म की प्रपंचभूत भी नहीं हैं। सुख और दु:ख व्यक्ति का अपना-अपना होता है।' आचारांग का यह घोष आत्मा की स्वतंत्रता की उद्घोषणा करता है।
"जिसे तू हननयोग्य मानता है, वह तू ही है।'' आचारांग का यह आत्माद्वैत अहिंसा के आचार की पराकाष्ठा है।
'जे एगंजाणइसे सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगंजाणइ', जो एक को जानता है वह सबको जानता है, जो सबको जानता है वह एक को जानता है। यह सूत्र अनेकान्त का आदिस्रोत 1. आचारांग नियुक्ति, गाथा 31-32
6.वही, 2/87 2. आचारांगभाष्यम, भूमिका पृ. 19
7. वहीं, 2/22 3. आयारो (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, वि.सं. 2031) 1/2 8. वही, 5/104 4. वही, 1/4
5. वही, 3/62
9. वही, 3/74
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