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जैन आगम में दर्शन
लेखक ने इस पुस्तक में भगवती के कई महत्त्वपूर्ण अंशों पर समालोचनात्मक विमर्श किया है। भगवती की रचना के सम्बन्ध में उन्होंने विस्तार से विचार किया है जैसा कि प्राक्कथन में उन्होंनेस्वयंलिखाहैकि"Thepresentworkintendstogiveafairlycompleteanalysis oftheviyahpannatti; moreover, in the introduction I have tried to answerat least some of the rather complicated questions regarding its composition."
विद्वान लेखक ने ग्रन्थ के अन्त में कई परिशिष्ट दिए हैं जिससे ग्रन्थ का मूल्य और अधिक बढ़ गया है।
जर्मन विद्वानों से सम्बन्धित तथ्यों के लिए 'German Indologists' पुस्तक प्रस्तुत विमर्श का मुख्य आधार रही है। भारतीय विद्वान
पण्डित दलसुख मालवणियाने 1 9 4 9 में न्यायावतारवार्तिक वृत्ति का संपादन किया। जिसकी 151 पृ. की विस्तृत प्रस्तावना में आगम युग के जैनदर्शन पर प्रकाश डाला। सन् 19 6 6 में यह प्रस्तावना परिवर्धित रूप में 'आगम युग का जैन दर्शन' नाम से स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुई। जिसका द्वितीय संस्करण 1990 में प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से प्रकाशित हुआ। विद्वान् लेखक ने इस ग्रन्थ के माध्यम से जैन विद्या की अभूतपूर्व सेवा की है। इस ग्रन्थ में अनेकान्तवाद, नयवाद, सप्तभंगी, प्रमाण, उनके भेद-प्रभेद आदि का उल्लेख है। इस ग्रन्थ का पूर्व भाग आगम साहित्य पर आधारित है तथा उत्तर भाग आगमोत्तर साहित्य के आधार पर लिखित है। इसमें मुख्य रूप से प्रमाण एवं प्रमेय सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध है। इस ग्रन्थ का प्रयोजन यह प्रदर्शित करना था कि आगमोत्तर जैन साहित्य में जो दार्शनिक चर्चा प्राप्त है, उसका मूल आगम में है।
लेखक का एक अन्य लघुकाय ग्रन्थ "जैन दर्शन का आदिकाल" नाम से "लालभाई दलपत भाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद' से 1 9 80 में प्रकाशित हुआ। उसमें लेखकनेजैनदर्शनकेप्रारम्भिकस्वरूप का आगम के आधार पर निरूपण किया है। ग्रन्थ लघुकाय होने पर भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
डॉ. नथमल टाटिया द्वारा लिखित 'Studies in Jaina Philosophy" एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ पांच अध्यायों में विभक्त है । जिनमें मुख्य रूप से जैन का अनेकान्तिक दृष्टिकोण, ज्ञानमीमांसा, अविद्या, कर्म एवं जैनयोग पर क्रमश: विस्तृत विचार किया गया है। विश्रुत विद्वान् डॉ. टाटियां ने इस ग्रंथ में आगमों का प्रयोग मुख्य रूप से अपने ज्ञानमीमांसा वाले अध्याय में प्रचुरता से किया है। जिसमें जैन ज्ञानमीमांसा की महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर विचार हुआ है। इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण सन् 1951 में जैन कल्चरल सोसायटी, बनारस से
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