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________________ 292 जैन आगम में दर्शन परम्परा में समाहित होते हैं ठीक इसी प्रकार क्रियावाद के संदर्भ में समझना चाहिए। सारे क्रियावादी जैन नहीं हैं यह स्पष्ट है अत: सारे क्रियावादी सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो सकते किंतु जो सम्यग्दृष्टि है वह क्रियावादी है इस व्याप्ति को स्वीकार करने में कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती। नियुक्ति में कहा भी है -- 'सम्मदिट्ठी किरियावादी।' अर्थात् जो सम्यक्दृष्टि हैं वे क्रियावादी हैं किंतुइस वक्तव्य कोउलटकर नहीं कहा जा सकता कि सारे क्रियावादी सम्यक्दृष्टि होते हैं। चूर्णिकार ने यह भी कहा है कि निर्ग्रन्थों को छोड़कर 3 6 3 में अवशिष्ट सारे मिथ्यादृष्टि हैं। इससे स्पष्ट है कि चूर्णिकाल तक निर्ग्रन्थ धर्म प्रस्तुत क्रियावाद का ही भेद रहा है। आगम उत्तरकालीन साहित्य में इन सारे ही वादों को मिथ्यादृष्टि समझा जाने लगा जैसा कि भगवतीवृत्ति से स्पष्ट है।' यद्यपि टीकाकार भी यह मानने को तो विवश हैं ही कि भगवती में आगत क्रियावाद में सम्यग्दृष्टि का भी ग्रहण है। दार्शनिक परम्परा के ग्रन्थों में तो इनका विवेचन एकान्तवाद के रूप में किया गया है। गोम्मटसार ने इन 3 6 3 मतों को स्वच्छंद दृष्टि वालों के द्वारा परिकल्पित माना है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरवर्ती दार्शनिक जैन दर्शन का समाहार प्रस्तुत क्रियावाद में करने के पक्ष में नहीं है। महावीर युग के विभिन्न मतवाद सूत्रकृतांग सूत्र में स्वसमय और परसमय की सूचना है। समवाय और नंदी में इस आशय की स्पष्ट सूचना है-'सूयगडे णं ससमया सूइज्जति, परसमया सूइज्जति, ससमयपरसमया सूइज्जति ।' दृष्टिवाद के पांच प्रकारों में एक है-सूत्र । आचार्य वीरसेन के अनुसार सूत्र में अन्य दार्शनिकों का वर्णन है।' सूत्रकृतांग की रचना उसी के आधार पर की गई, इसलिए इसका ‘सूत्रकृत' नाम रखा गया है। भगवान् महावीर के समय में मुख्य रूप से प्रचलित दार्शनिक मन्तव्यों का उल्लेख सूत्रकृतांग में है। जैसे बौद्ध दर्शन सम्मत ग्रन्थ दीघनिकाय' में तत्कालीन दार्शनिक मन्तव्यों का संकलन किया गया है। भगवान् महावीर और बुद्ध के समय विभिन्न मतवाद प्रचलित थे, यह तथ्य प्रस्तुत ग्रंथों का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है। सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम 'समय' नामक अध्ययन में, बारहवें समवसरण अध्ययन में तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम तथा षष्ठ अध्ययन में अनेक दार्शनिक 1. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा 121 2. सूत्रकृतांग चूर्णि, 2 5 3, तिण्णि तिसट्ठा पावादियसयाणि णिग्गंथे मोत्तूण मिच्छादिट्ठिणो त्ति........। 3. भगवती,वृत्ति पत्र 944 4. तत्त्वार्थ वार्तिक, 8/1 5. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गाथा 889, सच्छंददिट्टिहिं वियप्पियाणि तेसट्ठिजुत्ताणि सयाणि तिण्णि। पाखंडिणं वाउलकारणाणि अण्णाणि चित्ताणि हरंतिताणि।। 6. (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू. 88 (ख) नंदी, सूत्र 8 0 कसायपाहुड, भाग । पृ. 1 3 4 सूयगडो, 1/। सम्पूर्ण 9. दीघनिकायान्तर्गत ब्रह्मजालसुत् सामञफलसुत्त। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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