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आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन
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भगवती में वर्णित समवसरण
भगवती सूत्र के तीसवें शतक का नाम ही समवसरण है। वहां पर भी क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी एवं विनयवादी के भेद से चार प्रकार के समवसरणों का उल्लेख है।' वहां पर क्रियावादी आदि प्रत्येक को समवसरण कहा है। भगवती वृत्ति में समवसरण को परिभाषित करते हुए कहा गया-नाना परिणाम वाले जीव कथंचित् समानता के कारण जिन मतों में समाविष्ट हो जाते हैं वे समवसरण कहलाते हैं अथवा परस्पर भिन्न क्रियावाद आदि मतों में थोड़ी समानता के कारण कहीं पर कुछ वादियों का समावेश हो जाता है वे समवसरण हैं। भगवती के प्रसंग में एक बात ध्यातव्य है कि अन्यत्र प्राय: सभी जैन शास्त्रों में इन चारों को मिथ्यादृष्टि कहा किंतु भगवती के प्रस्तुत प्रसंग में क्रियावादियों को सम्यग्दृष्टि माना गया है। भगवती सूत्र में कहा गया अलेश्यी अर्थात् अयोगी केवली क्रियावादी ही होते हैं। जो क्रियावादी होते हैं वे भवसिद्धिक ही होते हैं, अक्रियावादी, अज्ञानवादी एवं विनयवादी भवसिद्धिक एवं अंभवसिद्धिक दोनों प्रकार के हो सकते हैं। सम्यमिथ्यादृष्टि जीव क्रियावादी एवं अक्रियावादी दोनों ही नहीं होते अपितु अज्ञानवादी अथवा विनयवादी होते हैं। भगवती के उपर्युक्त वचन से यह फलित होता है कि जैन क्रियावादी है। सम्यकदृष्टि एवं क्रियावाद
सूत्रकृतांग में भी क्रियावाद के प्रतिपादक की अर्हता में उसके ज्ञानपक्ष को ही महत्त्व दिया है।' ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आगम युग में सम्पूर्ण विचारधाराओं को चार भागों में स्थूल रूप से विभक्त कर दिया और जैन दर्शन का भी समावेश उन्हीं में (क्रियावाद) कर दिया यद्यपि यह सत्य है कि सारे क्रियावादियों की अवधारणा पूर्ण रूप से एक जैसी नहीं थी किंतु कुछ अवधारणाएं उनकी परस्पर समान थी जैसा कि दशाश्रुतस्कन्ध के उल्लेख से स्पष्ट है। उन्हीं कुछ समान अवधारणाओं के आधार पर वे एक कोटि में परिगणित होने लगे। जैसे वैदिक और श्रमण दो परम्पराएं हैं। जैन, बौद्ध श्रमण परम्परा के अंग हैं किंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि श्रमण परम्परा के होने के कारण उनकी सारी अवधारणाएं एक जैसी हो, हां, इतना तो स्पष्ट है कि उनमें कुछ अवधारणाएं समान हैं जिससे वे वैदिक धारा से पृथक् होकर श्रमण
1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 30/1 2. भगवती वृत्ति, प. 944, समवसरन्ति नानापरिणामा जीवा: कथंचितुल्यतया येषु मतेषु तानिसमवसरणानि।
समवस्तयो वाऽन्योन्यभिन्नेषु क्रियावादादि मतेष कथं चित्तुल्यत्वेन क्वचिद् केषांचित् वादिनामवतारा: समवसरणानि। वही, 941, एते च सर्वेऽप्यन्यत्र यद्यपि मिथ्यादृष्टयोऽभिहितास्तथाऽपीहाद्या: सम्यग्दृष्टयो ग्राह्या, सम्यगस्तित्ववादिनामेव तेषां समाश्रयणात् ।
अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 30/4 5. वही, 30/30 6. वही, 30/6 1. सूयगडो, 1/12/20-22
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