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जैन आगम में दर्शन
नव तत्त्व का आधार
क्रियावादी, अक्रियावादी के भेद नवतत्त्व को आधार बनाकर किए गए हैं। नव तत्त्वों के संदर्भ में इस प्रकार का मात्र वैचारिक प्रस्थान ही रहा होगा, हो सकता है श्रमण निर्ग्रन्थों में इस प्रकार का पारस्परिक विचार होता रहा हो उसका ही उल्लेख इन मतवादों में हो गया हो। इनके वास्तविक प्रस्थानों का अस्तित्व हो, ऐसा संभव नहीं लगता।
जीव आदि नव पदार्थों को अस्ति, नास्ति सात भंगों से साथ गुणित करने पर उनके तिरेसठ भेद हो जाते हैं। जीव है, ऐसा कौन जानता, जीव नहीं है ऐसा कौन जानता है, इस प्रकार सभी भंगों के साथ संयोजना की जाती है।'
देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता-पिता का मन, वचन, काया एवं दानसम्मान से विनय करना चाहिए। आठ को चार गुणित करने पर बत्तीस भेद हो जाते हैं।'
सूत्रकृतांग सूत्र में क्रियावाद आदि चार वादों का उल्लेख है। ‘महावीरत्थुई' अध्ययन में इन वादों के उल्लेख के साथ यह सूचना दी गई कि महावीर ने इन वादों के पक्ष का निर्णय किया तथा सारे वादों को जानकर वे यावज्जीवन संयम में उपस्थित रहे।' प्रस्तुत वक्तव्य से यह ज्ञात नहीं होता कि महावीर का स्वयं का पक्ष कौन-सा है किंतु सूत्रकृतांग के बारहवें अध्ययन में चार समवसरण का उल्लेख करने के पश्चात् क्रमश: वे अज्ञानवाद, विनयवाद एवं अक्रियावाद की अवधारणा को निराकृत करते हैं तथा अन्त में क्रियावाद की अवधारणा का औचित्य प्रतिपादित करते हैं। इससे ज्ञात होता है कि महावीर क्रियावाद की अवधारणा के पक्षधर हैं। आवश्यक सूत्र में साधक कहता है-मैं अक्रिया का छोड़ता हूं तथा क्रिया को स्वीकार करता हूं।' इससे अभिव्यंजित होता है कि जैनधर्म क्रियावादी है। किंतु क्रिया का यदि केवल आचार अर्थ ही किया जाए तो इसमें पूर्ण जैन दृष्टि समाहित नहीं होती क्योंकि जैनधर्म में ज्ञान और आचार को समान महत्त्व दिया गया है कदाचित् ज्ञानको आचार से अधिक महत्त्व ही दिया गया है। दशवैकालिक का 'पढमं नाणं तओ दया' का वक्तव्य इस तथ्य का साक्षी है। आगम उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने भी ज्ञान एवं चारित्र दोनों को ही मोक्षमार्ग के घटक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है।'
1. गोम्मटसार 2, गाथा 876 2. वही, गाथा 888 3. सूयगडो, 1/6/27 4. सूयगडो, 1/12/1-22
श्रमण प्रतिक्रमण, पृ. 32, अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपज्जामि । 6. दसवेआलियं, 4/10 7. तत्त्वार्थसूत्र, 1/1, "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:"
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