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आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन
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सिद्धि मानते थे, वैसे ही आचारवादी केवल आचार पर ही बल देतेथे। ज्ञानवाद और आचारवाद दोनों एकांगी होने के कारण मिथ्यादृष्टि की कोटि में आते हैं। विनयवाद के द्वारा ऐकान्तिक आचारवाद की दृष्टि का निरूपण किया गया है। विनम्रतावाद आचारवाद का ही एक अंग है, इसलिए उसका भी इसमें समावेश हो जाता है किंतु विनय का केवल विनम्रता अर्थ करने से आचारवाद का उसमें समावेश नहीं हो सकता।'
वसिष्ठ पराशर आदि इस दर्शन के विशिष्ट आचार्य थे।'
जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया था कि चार वादों के 3 6 3 भेद मात्र गणितीय पद्धति के आधार पर किए हैं। जिसका विस्तार से उल्लेख गोम्मटसार में भी हुआ है।
क्रियावादी वस्तु को 'अस्ति' रूप ही मानते हैं। वे वस्तु को स्वरूप एवं पररूप दोनों ही प्रकार से अस्ति रूप मानते हैं। नित्य-अनित्य के विकल्प से भी वस्तु को नित्य मानते हैं। काल, ईश्वर, आत्मा, नियति एवं स्वभाव से जीव, अजीव आदि नौ पदार्थों को स्वत:, परत:, नित्य एवं अनित्य के विकल्पसे 'अस्ति' रूपमानते हैं। इनको परस्पर गुणित करनेसे क्रियावादी के 180 भेद हो जाते हैं।'
अक्रियावादी वस्तु को स्वरूप एवं पररूप दोनों ही अपेक्षा से 'नास्ति' कहते हैं। अक्रियावाद में पुण्य, पाप एवं नित्य-अनित्य के विकल्प की योजना नहीं है। जीव आदि सात पदार्थों की काल, ईश्वर आदि के स्वत: परत: से गुणित करने पर उनके सत्तर भेद होते हैं तथा नियति एवं काल की अपेक्षा जीव आदि सात पदार्थ नहीं है, इस गुणन से उनके 14 भेद हो जाते हैं। 70 एवं 14 मिलकर 84 हो जाते हैं। गोम्मटसार के उल्लेख से ज्ञात होता है कि अक्रियावादियों में भी दो प्रकार की अवधारणा थीं एक तो काल आदि पांचों से ही जीव आदि का निषेध करते हैं तथा दूसरे मात्र नियति एवं काल की अपेक्षा से जीव आदि पदार्थों का निषेध करते हैं दोनों का एकत्र समाहार कर लेने से अक्रियावादी के 84 भेद हो जाते हैं।'
प्रस्तुत विमर्श से यह भी परिलक्षित हो रहा है कि कालवादी आदि दार्शनिक क्रियावादी एवं अक्रियावादी दोनों ही प्रकार के थे। जो काल आदि के आधार पर जीव आदि पदार्थों का अस्तित्व सिद्ध करते थे वे क्रियावादी हो गए जो इनका इन्हीं हेतुओं से नास्तित्व सिद्ध करते थे वे अक्रियावादी हो गए। अक्रियावादियों ने पुण्य, पाप, नित्यता-अनित्यता आदि विकल्पों को क्यों नहीं स्वीकार किया. यह अन्वेषणीय है।
1. सूयगडो, 1/12 के टिप्पण, पृ. 499 2. षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. 29, वसिष्ठपाराशरवाल्मीकिव्यासेलापुत्रसत्यदत्तप्रभृतयः । 3. गोम्मटसार, (कर्मकाण्ड) गाथा 877 से 888 4. वही, गाथा 877, अत्थि सदो परदो विय णिच्चाणिच्चत्तणेणय णवत्था।
कालीसरप्पणियदिसहावेहि य तेहि भंगा ह॥ 5. वही, गाथा 878
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