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________________ 288 जैन आगम में दर्शन दानामा और प्राणामा प्रव्रज्या भगवती सूत्र में दानामा और प्राणामा प्रव्रज्या का स्वरूप निर्दिष्ट है । तामलिप्ति नगरी में तामली गाथापति रहता था। उसने 'प्राणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की। प्राणामा का स्वरूप वहां वर्णित है। 'प्राणामा' प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् वह तामली जहां कहीं इन्द्र-स्कन्ध, रुद्र, शिव, वैश्रमण, दुर्गा, चामुण्डा आदि देवियों तथा राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, ईभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, कौआ, कुत्ता या चाण्डाल को देखता तो उन्हें प्रणाम करता। उन्हें ऊंचा देखता तो ऊंचे प्रणाम करता और नीचे देखता तो नीचे प्रणाम करता।' पूरण गाथापति ने 'दानामा' प्रव्रज्या स्वीकार की। उसका स्वरूप इस प्रकार हैप्रव्रज्या के पश्चात् वह चार पुट वाला लकड़ी का पात्र लेकर 'बेभेल' सन्निवेश में भिक्षा के लिए गया। जो भोजन पात्र के पहले पुट में गिरता उसे पथिकों को दे देता । जो भोजन दूसरे पुट में गिरता उसे कौए, कुत्तों को दे देता। जो भोजन तीसरे पुट में गिरता उसे मच्छ-कच्छों को दे देता। जो चौथे पुट में गिरता वह स्वयं खा लेता। यह 'दानामा' प्रव्रज्या स्वीकार करने वालों का आचार है। विनय का अर्थ वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने भी विनय का अर्थ विनम्रताही किया है। किंतु आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार प्रस्तुत प्रसंग में विनय का अर्थ आचार होना चाहिए। उन्होंने अपने अभिमत की पुष्टि में जैन आगमों के संदर्भ उद्धृत किए हैं। ज्ञाताधर्मकथा में जैन धर्म को विनयमूलक धर्म बतलाया गया है। थावच्चापुत्र ने शुकदेव से कहा-मेरे धर्म का मूल विनय है। यहां विनय शब्द महाव्रत और अणुव्रत अर्थ में व्यवहृत है। बौद्धों के विनयपिटक ग्रन्थ में आचार की व्यवस्था है। विनय शब्द आचार अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। विनय शब्द के आधार पर विनम्रता और आचार-ये दोनों अर्थ अभिप्रेत हैं। आचार पर अधिक बल देने वाली दृष्टि का प्रतिपादन बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। जो लोग आचार के नियमों का पालन करने मात्र से शीलशुद्धि होती है-ऐसा मानते थे, उन्हें 'शीलब्बतपरामास' कहा गया है। केवल ज्ञानवादी और केवल आचारवादी-ये दोनों धाराएं उस समय प्रचलित थीं। ज्ञानवादी जैसे ज्ञान के द्वारा ही 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 3/34 2. वही, 3/102, तएणं तस्स पूरणस्स गाहावइस्स अण्णया कयाइ......सयमेव चउप्पुडयं दारूमयं पडिग्गहगं गहाय मुंडे भवित्ता दाणामाए पव्वज्जाए पव्वइत्तए। सूत्रकृतांगवृत्ति, प. 213, इदानीं विनयो विधेयः। 4. ज्ञाताधर्मकथा, 1/5/59, तएणंथावच्चापुत्ते.......सुदंसणं एवं वयासी-सुदंसणा। विणयमूलए धम्मे पण्णत्ते। अभिधम्मपिटके धम्मसंगणि (संपा. भिक्षु जगदीश काश्यप, नालन्दा, 1960) पृ. 277, तत्थ कतमो सीलब्बतपरामासो? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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