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________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 287 अज्ञानवाद अज्ञानवाद का आधार अज्ञान है। अज्ञानवाद में दो प्रकार की विचारधाराएं संकलित हैं। कुछ अज्ञानवादी आत्मा के होने में संदेह करते हैं और उनका मत है कि आत्मा है तो भी उसे जानने से क्या लाभ ? दूसरी विचारधारा के अनुसार ज्ञान सब समस्याओं का मूल है, इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है। अज्ञानवादी कहते हैं-अनेक दर्शन हैं और अनेक दार्शनिक हैं। वे सब सत्य को जानने का दावा करते हैं, किंतु उन सबका जानना परस्पर विरोधी है। सत्य परस्पर विरोधी नहीं होता । यदि उन दार्शनिकों का ज्ञान सत्य का ज्ञान होता तो वह परस्पर विरोधी नहीं होता। वह परस्पर विरोधी है, इसलिए सत्य नहीं है। इसलिए अज्ञान ही श्रेय है।' ज्ञान से लाभ ही क्या है? शील में उद्यम करना चाहिए। ज्ञान का सार है-शील, संवर। शील और तप से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है। प्राचीनकाल में अज्ञानवाद की विभिन्न शाखाएंथीं। उनमें संजयवेलट्ठिपुत्त के अज्ञानवाद या संशयवाद का भी समावेश होता है। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने अज्ञानवाद की प्रतिपादन पद्धति के सात और प्रकारान्तर से चार विकल्पों का उल्लेख किया है।' सूत्रकृतांग चूर्णिकार ने मृगचारिका की चर्या करने वाली, अटवी में रहकर पुष्प और फल खाने वाले त्यागशून्य संन्यासियों को अज्ञानवादी कहा है। साकल्य, वाष्कल, कुथुमि, सात्यमुनि, नारायण आदि अज्ञानवाद के आचार्य थे। विनयवाद विनयवाद का मूल आधार विनय है। इनका अभिमत है कि विनय से ही सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। सूत्रकृतांग चूर्णि के अनुसार विनयवादियों का अभिमत है कि किसी भी सम्प्रदाय या गृहस्थ की निंदा नहीं करनी चाहिए। सबके प्रति विनम्र होना चाहिए।' विनयवादियों के बत्तीस प्रकार निर्दिष्ट हैं। देवता, राजा, यति, याति, स्थविर, कृपण; माता एवं पिता-इन आठों का मन, वचन, काय एवं दान से विनय करना चाहिए। इन आठों को चार से गुणा करने पर इनके बत्तीस भेद हो जाते हैं। सूत्रकृतांग चूर्णिकार ने 'दानामा' 'प्राणामा' आदि प्रव्रज्याओं को विनयवादी की बतलाया है।' 1. सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र 35 2. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 255-256 3. वही, पृ.:56,तेसु मिगचारियादयो अडवीए पुप्फ-फलभक्खिणो इच्चादि अण्णाणिया। 4. तत्त्वार्थवार्तिक,8/1 5. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 206, वेणइयवादिणो भणंति-ण कस्स वि पासंडिणोऽस्स गिहत्थस्स वा जिंदा कायव्वा सव्वस्सेव विणीयविणयेण होयव्वं। 6. वही, पृ. 255, वैनयिकमतं-विनयश्चेतो-वाक्-काय-दानत: कार्य:। सुर-नृपति-यति-ज्ञाति-नृ स्थविरा ध-मातृ-पितृषु सदा ।। 7. वही,.254,वेणइयवादीण छत्तीसा दाणामपाणामादिप्रव्रज्या। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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