SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 286 जैन आगम में दर्शन 3. 2. अनेकवादी-वैशेषिक अनेकवादी दर्शन है। उसके अनुसार धर्म-धर्मी, अवयव अवयवी भिन्न-भिन्न है।' मितवादी(1) जीवों की परिमित संख्या मानने वाले। इसका विमर्श स्याद्वादमंजरी में किया गया है। (2) आत्मा को अंगुष्ठपर्व जितना अथवा श्यामाक तंदुल जितना मानने वाले। यह औपनिषदिक अभिमत है। (3) लोक को केवल सात द्वीप-समुद्र का मानने वाले। यह पौराणिक अभिमत है। 4. निर्मितवादी-नैयायिक, वैशेषिक आदि लोक को ईश्वरकृत मानते हैं। 5. सातवादी बौद्ध 6. समुच्छेदवादी-प्रत्येक पदार्थ क्षणिक होता है। दूसरे क्षण में उसका उच्छेद हो जाता है। नित्यवादी-सांख्याभिमत सत्कार्यवाद के अनुसार पदार्थ कूटस्थ नित्य है। कारणरूप में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व विद्यमान है। कोई भी नया पदार्थ उत्पन्न नहीं होता और कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं होता। केवल उनका आविर्भाव तिरोभाव होता है।' 8. असत् परलोकवादी-चार्वाक दर्शन मोक्ष या परलोक को स्वीकार नहीं करता। चूर्णिकार ने सांख्य दर्शन और ईश्वर को जगत्कर्ता मानने वाले वैशेषिक दर्शन को अक्रियावादी दर्शन माना है तथा पंचभूतवादी, चतुर्भूतवादी, स्कन्धमात्रिक, शून्यवादी और लोकायतिक-इन दर्शनों को भी अक्रियावाद के अन्तर्गत परिगणित किया है। वैशेषिक एवं सांख्य दर्शन आत्मवादी है फिर उन्हें अक्रियावादी क्यों कहा गया है ? चूर्णि में इसका समाधान नहीं है। सांख्य दर्शन में आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है और वैशेषिक दर्शन में आत्मा कर्मफल भोगने में स्वतंत्र नहीं है। इसी अपेक्षा से चूर्णिकार ने दोनों दर्शनों को अक्रियावाद की कोटि में परिगणित किया है, ऐसी सम्भावना की जा सकती है। यह आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का अभिमत है। अक्रियावादी के 84 भेद माने गए हैं। क्रियावाद की तरह ही इसके भेद भी गणितीय पद्धति के आधार पर ही किए गए हैं। 1. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, श्लोक 4 2. वही, शलोक 29 3. सांख्यकारिका 9 4. सूयगडो (प्रथम) टिप्पण, पृ. 831-33 5. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 254, सांख्या वैशेषिका ईश्वरकारणादि अकिरियावादी। 6. वही, पृ. 256, पंच महाभूतिया चतुब्भूतिया खंधमेत्तिया सुण्णवादिणो लोगाइतिगा य वादि अकिरियावादिणो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy