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________________ 64 जैन आगम में दर्शन दस प्रकीर्णक प्रकीर्णक अर्थात् विविध । भगवान्महावीरकेचौदह हजार श्रमण शिष्यथे। नंदी में भगवान् । महावीर के चौदह हजार ही प्रकीर्णक माने गए हैं। वर्तमान में प्रकीर्णकों की संख्या मुख्यतया दस मानी जाती है। इन दस नामों में भी एकरूपता नहीं है। निम्नलिखित दस नाम विशेष रूप से मान्य हैं 1. चतु:शरण 2. आतुर - प्रत्याख्यान 3. महाप्रत्याख्यान 4. भक्तपरिज्ञा 5. तन्दुलवैचारिक 6. संस्तारक 1. गच्छाचार 8. गणिविद्या 9. देवेन्द्रस्तव 10. मरणसमाधि। ___ आगमों की बत्तीस संख्या मानने वाले प्रकीर्णक को आगम के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। पैंतालीस संख्या मानने वाले दस प्रकीर्णक एवं चौरासी संख्या मानने वाले तीस प्रकीर्णक ग्रन्थ मानते हैं। आगम के कर्ता जैन परम्परा के अनुसार आगम पौरुषेय हैं। मीमांसक जिस प्रकार वेद को अपौरुषेय मानता है, जैन की मान्यता उससे सर्वथा भिन्न है। उसके अनुसार कोई ग्रन्थ अपौरुषेय हो ही नहीं सकता है तथा ऐसे किसी भी ग्रन्थ का प्रामाण्य भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। जितने भी ग्रन्थ हैं उनके कर्ता अवश्य हैं। जैन परम्परा में तीर्थंकर सर्वोत्कृष्ट प्रामाणिक पुरुष है। उनके द्वारा अभिव्यक्त प्रत्येक शब्द स्वत: प्रमाण है। वर्तमान में उपलब्ध सम्पूर्ण जैन आगम अर्थ की दृष्टि से तीर्थंकर से जुड़ा हुआ है। अर्थागम के कर्ता तीर्थंकर है एवं सूत्रागम के कर्ता गणधर एवं स्थविर हैं। __ अर्थ का प्रकटीकरण तीर्थंकरों द्वारा होता है। गणधर उसे शासन के हित के लिए सूत्र रूप में गुम्फित कर लेते हैं। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं। वे गणधरकृत आगम से ही नि!हण करते हैं।' स्थविर दो प्रकार के होते हैं-1.चतुर्दशपूर्वी 2. दशपूर्वी । ये सदा निर्ग्रन्थ प्रवचन को आगे करके चलते हैं। एतदर्थ उनके द्वारा रचित ग्रंथों में द्वादशांगी से विरुद्ध तथ्यों की सम्भावना नहीं होती अत: इनको भी जैन परम्परा आगम के कर्ता के रूप में स्वीकार करती है। प्रत्येकबुद्ध रचित आगमों का प्रामाण्य 1. नंदी, सूत्र 79, चोद्दस पइण्णगसहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स। 2. आवश्यकनियुक्ति,गाथा 92,अत्थंभासइ अरहा सुत्तं गंथंतिगणहरा निउणं सासणस्स हियट्ठाएतओ सुत्तं पवत्तइ । 3. बृहत्कल्पभाष्य (संपा. मुनि पुण्यविजय, भावनगर, 19 3 3) गाथा 144, गणहर-थेरकयं वा आदेसा मुक्कवागरणतो वा। धुव-चलविसेसतो वा, अंगा-णंगेसुणाणत्तं॥ 4. (क) बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति गाथा 144 : यद् गणधरैः कृतं तदङ्गप्रविष्टम् । यत्पुनर्गणधरकतादेव स्थविरैर्निर्मूढम्.........अनङ्गप्रविष्टम्।। (ख) नंदीचूर्णि, पृ. 57 : गणहरकतमंगगतंजंकतं थेरेहिं बाहिरं तं च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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