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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 65 भी जैन परम्परा में स्वीकृत है जिसकी चर्चा हम आगम प्रामाण्य के अन्तर्गत करेंगे। आवश्यकनियुक्ति में उल्लेख प्राप्त होता है कि "तप, नियम, ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान् भव्य आत्माओं के बोध के लिए ज्ञान कुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धिपटल में उन सभी कुसुमों का अवतरण कर प्रवचन माला में गूंथते हैं।' इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आगमों के कर्ता तीर्थंकर, गणधर एवं स्थविर हैं। आगम स्वीकृति का मानदण्ड जैन ग्रन्थों की संख्या में जब विकास होने लगा, तब एक प्रश्न उपस्थित हुआ कि किन ग्रन्थों को आगम माना जाए। सभी को तो आगम माना नहीं जा सकता है। तब एक कसौटी का निर्धारण हुआ। अर्थ रूप से तीर्थंकर प्रणीत, सूत्र रूप से गणधर प्रणीत, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी एवं प्रत्येक बुद्ध द्वारा कथित वचन ही आगम कहे जा सकते हैं। जब दशपूर्वी नहीं रहे तब आगम की संख्या वृद्धि भी स्वत: स्थगित हो गई। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य कुछ प्रकीर्णक ऐसे भी हैं जो दशपूर्वो से कम ज्ञान वालों द्वारा रचित है फिर भी उनको आगम रूप में मान्यता प्राप्त है। ऐसा कुछ विशेष स्थिति में हुआ। आगम का प्रामाण्य वर्तमान में ग्यारह अंग उपलब्ध हैं। बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छिन्न है। रचना की दृष्टि से बारह अंग गणधरकृत हैं, इसलिए इनका प्रामाण्य असंदिग्ध है। अंग स्वत: प्रमाण है। सब स्थविरों की रचना का प्रामाण्य नहीं माना जाता। जिनकी रचना का प्रामाण्य माना जाता है, उनके लिए पूर्वज्ञान की सीमा निर्धारित है। अभिन्नदशपूर्व तक के धारक का सम्यक् श्रुत होता है, यह नंदी में वर्णित है। नंदी सूत्र में इस वक्तव्य के आधार पर सम्पूर्ण दशपूर्वी तक के वचनों का प्रामाण्य जयाचार्य ने भी स्वीकार किया है। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् अर्वाचीन आचार्यों ने ग्रन्थ रचे, तब संभव है उन्हें आगम की कोटि में रखने या न रखने की चर्चा चली और उनके प्रामाण्य और अप्रामाण्य का प्रश्न भी उठा । चर्चा के बाद चतुर्दश-पूर्वी और दस - 1. आवश्यकनियुक्ति,गाथा 89-90 2. (क) ओघनियुक्ति (A History of the canonical literature of the Jains, P. 14 पर उधृत) वृत्ति, पृष्ठ 3.a अर्थतस्तीर्थकरप्रणीतंसूत्रतोगणधरनिबद्धं चतुर्दशपूर्वधरोपनिबद्धंदशपूर्वधरोपनिबद्धं प्रत्येकबुद्धोपनिबद्धं (ख) मूलाचार, 5/277, सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदसपुव्वकथिदं च ।। 3. (क) नंदी, सूत्र 6 6, इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं चोइससपुव्विस्स सम्मसुयं, अभिण्णदसपुव्विस्स सम्मसुयं, तेण परं भिण्णेसुभयणा। (ख) बृहत्कल्पभाष्य, गाथा 1 3 2, चोइस दस य अभिन्ने नियमा सम्मं तु सेसए भयणा। 4. प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध (ले. जयाचार्य, लाडनूं, 1988) 19/12, 20/9, संपूरण दस पूर्वधर, चउदश पूरवधार। तास रचित आगम हुवै, वासन्याय विचार।। दश, चउदशपूरवधरा, आगमरचै उदार। ते पिण जिन नींसाख थी, विमल न्याय सुविचार॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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