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________________ जैन आगम में दर्शन * जीव के स्वरूपभूत पांच भाव, प्रयोग एवं विस्रसा सृष्टि की अवधारणा इत्यादि अनेक विषय आगम युग में प्रतिपादित हुए हैं, जिनके माध्यम से जैन दर्शन की मौलिकता एवं वैशिष्ट्य प्रस्तुत होता है। आगमयुगोत्तरवर्ती दर्शनयुग में ज्ञान की विविध शाखाओं का पृथक-पृथक् विकास हुआ। इनमें दो शाखाएं मुख्य थीं-प्रमाण और प्रमेय। इन दोनों में भी विशेष बल प्रमाण पर दे दिया गया और प्रमेय का विवेचन गौण हो गया, स्वाभाविक था कि आगम युग में जो विवेचन हुआ था उसके अनेक महत्त्वपूर्ण पक्ष या तो सर्वथा छूट गए या नगण्य हो गए । मध्ययुगीन जैन तार्किकों ने अपने समकालीन होने वाली प्रमाण, तर्क आदि की चर्चा को अपने विमर्श का मुख्य विषय बनाया तथा प्रमाण आदि के लाक्षणिक ग्रन्थों में अन्य दार्शनिकों के विचारों पर ऊहापोह किया। इस प्रक्रिया में उनका सम्बन्ध आगमों से विरल अथवा विच्छिन्नप्राय: हो गया फलत: मध्ययुगीन जैन चिंतकों ने जहां एक ओर जैन परम्परा की प्रमाण मीमांसा को तो समृद्ध बनाया वहां दूसरी ओर आगमिक युग के अनेक दार्शनिक तत्त्वों की उपेक्षा भी हो गई। जैन आगमों के अधुनातन भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रस्तुत संदर्भ में अपनी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि कुछ पश्चिमी विचारकों ने लिखा है, जैन दर्शन अन्यान्य दर्शन के विचारों का संग्रह मात्र है, उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। उनकी इस स्थापना को हम सर्वथा निराधार नहीं मानते, इसका एक आधार भी है। मध्ययुग के आचार्यों ने न्याय या तर्कशास्त्र के जिन ग्रन्थों की रचना की उनमें बौद्ध और नैयायिक आदि दर्शनों के विचारों का संग्रह किया गया है। उन ग्रन्थों को पढकर जैन दर्शन के बारे में उक्त धारणा होना अस्वाभाविक नहीं है। जैन दर्शन का वास्तविक स्वरूप आगम सूत्रों में निहित है। मध्यकालीन ग्रन्थ खण्डन-मण्डन के ग्रन्थ हैं। हमारी दृष्टि में वे जैन दर्शन के प्रतिनिधि ग्रन्थ नहीं हैं। पहली भ्रांति यह है कि तार्किक ग्रन्थों को दार्शनिक ग्रन्थ माना जा रहा है। दूसरी भ्रांति इसी मान्यता के आधार पर पल रही है कि जैनदर्शन दूसरे दर्शनों के विचारों का संग्रह मात्र है। पहली भ्रांति टूटे बिना दूसरी भ्रांति नहीं टूट सकती। जैन दर्शन के आधारभूत और मौलिक ग्रन्थ आगम ग्रन्थ हैं। ये दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनका गम्भीर अध्येता नहीं कह सकता कि जैनदर्शन दूसरे विचारों का संग्रह मात्र है। आचार्य महाप्रज्ञ के इस वक्तव्य ने मुझे प्रस्तुत विषय में कार्य करने के लिए प्रेरित किया । वैसे भी यह तो स्पष्ट है कि ऐतिहासिक दृष्टि से जैनदर्शन का प्राचीनतम स्वरूप आगम में उपलब्ध है अत: आगमोत्तरकालीन दार्शनिक विवेचन को सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए आगमकालीन दार्शनिक विवेचन को देखना आवश्यक है। 1. भगवई (खण्ड-1) भूमिका, पृ. 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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