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विषय-प्रवेश
जैन आगम साहित्य का अधिकांश भाग विलुप्त हो गया है, यह जैन परम्परा की मान्यता है किन्तु जो उपलब्ध है वह भी परिमाण की दृष्टि से विशाल है। एक शोध-प्रबन्ध में इस सम्पूर्ण उपलब्ध साहित्य का आलोडन करना संभव नहीं था अत: इस शोध-प्रबन्ध में अंगसाहित्य के प्रथम पांच अंगों -- आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांगएवं भगवती - में निहित जैन दर्शन की मौलिक अवधारणाओं का यथाशक्य उल्लेख हो सका है। यद्यपि प्रसंगानुकूल अन्य आगमों तथा दार्शनिक ग्रन्थों का उपयोग भी यथावसर किया गया है।
मुझे अपने प्रस्तुत शोधकार्य के दौरान यह स्पष्ट अवभासित होता रहा कि जैन आगमों में दर्शन की बहुमूल्य अवधारणाएं उपलब्ध हैं। उन अवधारणाओं का ज्ञान केवल मध्ययुगीन जैन तार्किक ग्रन्थों के अनुशीलन से नहीं हो सकता। इस दृष्टि से जैन आगमों के दार्शनिक प्रतिपादन का अपना वैशिष्ट्य है। उदाहरणतः दार्शनिक युग में जैन दर्शन का प्रारम्भ मोक्ष मार्ग की जिज्ञासा से होता है किन्तु आचारांग का प्रारम्भ साधक अपने मूल उद्गम को जानने की इच्छा से करता है। अपने मूल उद्गम की जिज्ञासा मोक्ष मार्ग की जिज्ञासा की अपेक्षा अधिक मौलिक है। यदि जन्म ही मेरा प्रारम्भ है और मृत्यु ही मेरा अन्त है तो ऐसी स्थिति में मोक्ष का प्रश्न ही नहीं उठता और तब चार्वाक् दर्शन फलित हो जाएगा मरणमेवापवर्गः । यदि मैं जन्म के पहले भी था तो मृत्यु के बाद भी रहूंगा , इस मान्यता से ही मोक्ष का लक्ष्य निर्धारित होता है। दार्शनिक जगत् में तत्त्वार्थसूत्र के समय तक पुनर्जन्म एक स्थापित सिद्धान्त बन चुका था इसलिए दार्शनिकों ने मोक्ष मार्ग के उपायों से शास्त्र का प्रारम्भ किया है।
पांचवी शताब्दी ई. पू. में पुनर्जन्म का सिद्धान्त जन्म तो ले चुका था किन्तु अभी तक यह सिद्धान्त स्वतः सिद्ध मान्यता का रूप नहीं ले पाया था। भगवान् महावीर के पश्चात्वर्ती दार्शनिकों ने पुनर्जन्म कोतर्क के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया किन्तु भगवान् महावीर नेतर्क की अपेक्षा जाति-स्मृति के अनुभव द्वारा पुनर्जन्म को सिद्ध करने की प्रक्रिया को अधिक सुरक्षित माना क्योंकि यह प्रक्रिया प्रत्यक्ष पर आधारित थी, अनुमान पर नहीं। इसी प्रक्रिया में से गुजरने की उन्होंने साधक को प्रेरणा दी है। आगम अपनी सारी शक्ति प्रत्यक्षानुभूति पर केन्द्रित करता है। जबकि दर्शन युग में उसका स्थान तार्किक विचारणा ग्रहण कर लेती है। आगम युग में आत्म-साक्षात्कार कर्ता ऋषि उपस्थित थे, जबकि दर्शन युग में उनका अभाव होने से यह युग तर्क प्रधान बन गया।
उपर्युक्त विवरण से दो बातें फलित होती हैं— प्रथम तो आगम, दर्शन की अपेक्षा अधिक मूलस्पर्शी दृष्टिकोण को लेकर चलता है, मोक्ष की जिज्ञासा उत्पन्न होने से पूर्व पुनर्जन्म में आस्था होना आवश्यक है। दूसरे में दर्शन वैचारिक धरातल पर विश्लेषण करता है। आगम के लिए वैचारिक विश्लेषण गौण हैं, मुख्य है साधना द्वारा अपरोक्षानुभूति । आगमयुग का दर्शनयुग से यह वैशिष्ट्य अनेक स्थलों पर परिलक्षित है।
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