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जैन आगम में दर्शन
द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर सूक्ष्मपरिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में शीत, उष्ण, स्निग्ध एवं रुक्ष इनमें से दो, तीन या चार स्पर्श प्राप्त होते हैं। अत: ये स्कन्ध अगुरुलघु अर्थात् भारहीन होंगे। बादर परिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में चार स्पर्श से यावत् अष्ट स्पर्श तक होते हैं। उनमें जब चार स्पर्श होते हैं तब आठों में से कोई भी स्पर्श साथ रह सकता है मात्र लघु और गुरु स्पर्श साथ नहीं रहते। पांच स्पर्शी स्कन्ध से लेकर आगे तक गुरु-लघु स्पर्श साथ भी रह सकते हैं। अत: ये स्कन्ध भारयुक्त होने चाहिये भले वे चार स्पर्श से यावत् आठ स्पर्श वाले क्यों न हो। गुरु एवं लघु स्पर्श ही स्कन्ध की भारयुक्तता के नियामक होते हैं अत: बादर परिणति वाले अनन्तप्रदेशी चतुस्पर्शी स्कन्ध में भी भार की संभावना परिलक्षित हो रही है। पुद्गल की ग्राह्यता-अग्राह्यता
___ पुद्गल स्पर्श, रस आदि से युक्त होने के कारण रूपी है। षड्द्रव्यों में यदि कोई इन्द्रिय का विषय बनता है तो वह केवल पुद्गल ही बन सकता है किंतु सारे पुद्गल इन्द्रियग्राह्य नहीं होते। छद्मस्थदो प्रकार के होते हैं-इन्द्रियज्ञानी एवं अतीन्द्रियज्ञानी । इन्द्रिय प्रत्यक्ष वाला व्यक्ति परमाणु से लेकर सूक्ष्म परिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के पुद्गलों का ग्रहण नहीं कर सकता । भगवती में कहा गया है कि परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को कुछ छद्मस्थ जानते हैं कुछ नहीं जानते हैं। परमाणु से लेकर असंख्यप्रदेशी स्कन्ध इन्द्रियज्ञान के विषय नहीं बन सकते। अनन्तप्रदेशी के लिए जो वक्तव्य है वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष के संदर्भ में सूक्ष्म-परिणति वाले अनन्तप्रदेशी के लिए है। बादर परिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों में से कतिपय का ज्ञान तो इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से होता ही है। यदि इसका अर्थ सूक्ष्मबादर दोनों ही प्रकार के अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते तो "कुछ जानते हैं कुछ नहीं जानते" इसमें अनन्तप्रदेशी को अर्थात् पुद्गल मात्र को ग्रहण न करने वाले कौन-से जीव होते क्योंकि यह तो स्पष्ट ही है कि संसार के सभी प्राणी किसी-न-किसी रूप में पुद्गल का ग्रहण/ज्ञान तो करते ही हैं।
सामान्य अवधिज्ञान के धारक कुछ प्राणी परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को जानते-देखते हैं। परमावधि सम्पन्न व्यक्ति एवं केवलज्ञानी उनको जानते-देखते हैं किंतु युगपद्जानने-देखने की क्रिया नहीं कर सकते। क्रमपूर्वक ही उनको जानते-देखते हैं। क्योंकि एक ही समय में एक ही उपयोग हो सकता है। फलितार्थ में यह कह सकते हैं कि इन्द्रियज्ञान के मात्र बादर परिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध ही ज्ञेय बनते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान परमाणु एवं स्कन्ध दोनों को ही अपना ज्ञेय बना सकता है।
1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई),20/27-35 2. वही, 20/ 36 3. वही, 18/174-176 4. वही, 18/177 5. वही, 18/178-179
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