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________________ तत्त्वमीमांसा 121 पुद्गलपरिणतिके प्रकार भगवती में पुद्गल के तीन प्रकार के परिणमन माने है तथा उस परिणमन के संदर्भ में वहां विभिन्न तथ्य प्रस्तुत हुए हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी जो सम्प्रति भगवती सूत्र के संपादन कार्य में संलग्न है, भगवती के इस संदर्भ की सृष्टिवाद के संदर्भ में एक विशिष्ट चर्चा प्रस्तुत की है। उनकी यह विवेचना दर्शन जगत में सृष्टिवाद के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण दृष्टि प्रदान करती है। आपश्री द्वारा संपादित भगवती के सात शतक प्रकाशित हो चुके हैं। अन्य प्रकाशित नहीं हुए हैं। उपर्युक्त कथित विषय की विमर्शना आठवें शतक में है जो अप्रकाशित है। मैंने इस विषय में उस अप्रकाशित सामग्री का स्वीकृति पूर्वक उपयोग किया है। किन्तु संदर्भ देने की कठिनाई थी अतः उस सामग्री में दिए गए संदर्भो का पुद्गल परिणति से लेकर परिणाम प्रत्ययिक बंध तक प्रयोग किया है। परिणमन की अपेक्षा से पुद्गल तीन प्रकार के होते हैंप्रयोग परिणत। मिश्र परिणत। विस्रसा (स्वभाव) परिणत।' प्रयोग निरपेक्ष परिवर्तन को विस्रसा कहा जाता है। शरीर आदि की संरचना जीव के प्रयत्न से होती है, वह प्रयोग परिणत है।' सिद्धसेनगणी ने प्रयोग का अर्थ जीव का व्यापार किया है। अकलंक ने प्रयोग का अर्थपुरुषका शरीर, वाणी और मन का संयोग किया है। जीव के प्रयोगऔर स्वभावइनदोनोंके योग से जोपरिणमन होता है, वह मिश्रपरिणत है। सिद्धसेनगणी ने जीव प्रयोग सहचरित अचेतन द्रव्य की परिणति को मिश्र कहा है। अभयदेवसूरि ने मिश्र को समझाने के लिए दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं 1. मुक्त जीव का शरीर। 2. औदारिकादि वर्गणाओं का शरीर रूप में परिणमन । शरीर का निर्माण जीव ने किया है, इसलिए वह जीव के प्रयोग से परिणत द्रव्य है। स्वभाव से उसका रूपान्तरण होता है इसलिए वह मिश्रपरिणत द्रव्य है। 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 8/। 2. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24 पृ. 360, विस्रसा-स्वभाव: प्रयोगनिरपेक्षो विस्रसाबन्धः। 3. भगवतीवृत्ति पत्र 328, जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः। 4. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24 पृ. 360, प्रयोगो जीवव्यापारस्तेन घटितो बंध: प्रायोगिकः। 5. तत्त्वार्थवार्तिक, 5/24 पृ. 487, प्रयोग: पुरुषकायवाङ्मनसंयोगलक्षण: । 6. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24 पृ. 360, प्रयोगविस्रसाभ्यां जीवप्रयोगसहचरिताचेतनद्रव्यपरिणतिलक्षण: स्तम्भकुम्भादिमिश्रः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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