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________________ 122 जैन आगम में दर्शन औदारिक आदि वर्गणा स्वभाव से निष्पन्न हैं। जीव के प्रयोग सेवेशरीर रूप में परिणत होती हैं। इसमें भी जीव का प्रयोग और स्वभाव दोनों का योग है। उन्होंने स्वयं प्रश्न प्रस्तुत किया-प्रयोग परिणाम और मिश्र परिणाम में क्या अन्तर है? उन्होंने समाधान में कहा-प्रयोग परिणाम में भी स्वभाव परिणाम है किंतु वह विवक्षित नहीं है।' सिद्धसेनगणी के अनुसार मिश्र परिणाम में प्रयोग और स्वभाव दोनों का प्राधान्य विवक्षित है, आचार्य महाप्रज्ञ ने इन दोनों व्याख्याओं की संगति प्रस्तुत करते हुए लिखा“उक्त दोनों व्याख्याओं की संगति कार्य-कारण के संदर्भ में बिठाई जा सकती है। मिश्रपरिणाम के उदाहरण हैं घट और स्तम्भ । घट के निर्माण में मनुष्य का प्रयत्न है और मिट्टी में घट बनने का स्वभाव है इसलिए घट मिश्रपरिणत द्रव्य है। इसकी तुलना वैशेषिक सम्मत समवायि कारण से की जा सकती है।' प्रयोग परिणाम में किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं होती। उसका निर्माण जीव के आंतरिक प्रयत्न से ही होता है। मिश्र-परिणाम में जीव के प्रयत्न के साथ निमित्त कारण का भी योग होता है। स्वभाव परिणाम जीव के प्रयत्न और निमित्त दोनों से निरपेक्ष होता है। भगवती में प्रयोग परिणत का वर्णन विस्तार से हुआ है। इससे फलित होता है-जीव अपने प्रयत्न से शरीर की रचना, इन्द्रिय की रचना, वर्ण का निष्पादन और संस्थान की संरचना करता है। प्रयोग परिणाम से पुरुषार्थवाद और स्वभाव परिणाम से स्वभाववाद फलित होता है। जैन दर्शन अनेकांतवादी है इसलिए उसे सापेक्ष दृष्टि से पुरुषार्थवाद एवं स्वभाववाद दोनों मान्य हैं। विस्रसा, प्रयोग एवं मिश्र परिणमन का सिद्धान्त कार्य-कारण के क्षेत्र में नवीन दृष्टि प्रदान करता है। विस्रसा परिणत द्रव्य कार्य-कारण के नियम से मुक्त होता है। प्रयोग परिणत द्रव्य निमित्त कारण के नियम से मुक्त होता है। मिश्रपरिणत द्रव्य में निर्वर्तक और निमित्त कारण की संयोजना होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में कार्य-कारण का सिद्धान्त सापेक्ष है। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण खोजने की अनिवार्यता नहीं है। प्रयोगपरिणतपुद्गल शरीर आदि की संरचना जीव के प्रयत्न से होती है वह प्रयोग परिणत पुद्गल है। प्रयोग, विस्रसा एवं मिश्र परिणत पुद्गलों के संदर्भ में विचार करते हैं तब जैन मान्य सृष्टि के दो रूप बनते हैं-(1) जीवकृत सृष्टि (2) अजीव निष्पन्न सृष्टि। 1. भगवती वृत्ति, पत्र 3 2 8, ........प्रयोगपरिणतेषु विरसा सत्यपि न विवक्षिता इति । 2. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24, पृ. 360, चोभयमपि प्राधान्येन विवक्षितम् । 3. अवस्थी, नरेन्द्र, शाश्वत, (जोधपुर, 1997) पृ. 2 1 4 - 215 तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24 पृ. 360, प्रयोगनिरपेक्षो विरसा बंधः। 5. भगवतीवृत्ति, पत्र 328 – पओगपरिणयत्ति जीव व्यापारेण शरीरादितया परिणता: 6. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 8/2-49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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