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तत्त्वमीमांसा
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जीवकृत सृष्टि
प्रयोग परिणत एवं मिश्र परिणत पुद्गलों के माध्यम से जो शरीर आदि की संरचना आदि होती है। उसे जीवकृत सृष्टि कहा जा सकता है। जीव अपने वीर्य से शरीर, इन्द्रिय और शरीर के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान का निर्माण करता है। यह प्रयोग परिणति है।' इसे जीवकृत सृष्टि कहा जा सकता है। प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य के प्रकरण में शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि के आधार पर जीवकृत सृष्टि के नानात्व का निरूपण किया गया है।
शरीर और इन्द्रिय पौद्गलिक हैं। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के गुण हैं।' संस्थान पुद्गल का लक्षण है। जीवकृत सृष्टि का नानात्व पुद्गल द्रव्य के संयोग से होता है, इसलिए उसके निरूपण में शरीर, इन्द्रिय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का निरूपण किया गया है। जीव जैसे शरीर और इन्द्रिय का निर्माण करता है वैसे ही अपने वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का भी निर्माण करता है।'
जीव का वीर्य दो प्रकार का होता है-आभोगिक और अनाभोगिक। इच्छा-प्रेरित कार्य करने के लिए वह आभोगिक वीर्य का प्रयोग करता है और अनाभोगिक वीर्य स्वत: चालित है। शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की रचना अनाभोगिक वीर्य से होती है। प्रायोगिक बंध अनाभोगिक वीर्य से होता है। भगवती में प्रयोग परिणत के प्रकरण में शरीर के पांच, इन्द्रिय के पांच, वर्ण के पांच, गंध के दो, रस के पांच, स्पर्श के आठ और संस्थान के पांच प्रकार निरूपित हैं। इनके नानात्व के आधार पर जीवकृत सृष्टि का नानात्व परिलक्षित है।
प्रयोग-परिणत पुद्गल द्रव्य का प्रथम उदाहरण एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत द्रव्य हैं।' इसी प्रकार मिश्र परिणत पुद्गल द्रव्य का उदाहरण भी एकेन्द्रिय मिश्र परिणत द्रव्य हैं।' किंतु दोनों के स्वरूप में भिन्नता है। एकेन्द्रिय जीव ने औदारिक वर्गणा के जिन पुद्गलों से औदारिक शरीर की रचना की है, वे पुद्गल एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं।
एकेन्द्रिय जीव के मुक्त शरीर का स्वभाव से परिणामान्तर होता है। वह एकेन्द्रिय मिश्र परिणत है। इसमें जीव का पूर्वकृत प्रयोग तथा स्वभाव से रूपान्तर ये दोनों परिणमन विद्यमान हैं।
घड़ा मिट्टी से बना। मिट्टी पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव का शरीर है, वह निर्जीव हो गया। एकेन्द्रिय जीव उससे च्युत हो गया, इस अवस्था में मिट्टी उसका मुक्त शरीर है। उसमें
1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 8/2-39 2. वही, 2/129, भावओ वण्णमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते। 3. वही, 8/2-39 4. तत्त्वार्थसूत्र, 8 / 3 वृत्ति पृ. 128 5. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 8/32 - 39 6. वही, 8.2 7. वही, 8-40
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