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जैन आगम में दर्शन
घट रूप में परिणत होने की क्षमता है। मिट्टी का परिणामान्तर हुआ और घट बन गया इसलिए वह एकेन्द्रिय मिश्र परिणत द्रव्य है।'
हमारा दृश्य जगत् पौद्गलिक जगत् है । जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, वह या तो जीवच्छरीर है या जीवमुक्त शरीर है। जीवच्छरीर प्रयोग परिणत द्रव्य का उदाहरण है। उसके मौलिक रूप पांच हैं
1. एकेन्द्रिय जीवच्छरीर 2. द्वीन्द्रिय जीवच्छरीर 3. त्रीन्द्रिय जीवच्छरीर 4. चतुरिन्द्रिय जीवच्छरीर 5. पंचेन्द्रिय जीवच्छरीर
इनके अवान्तर भेद असंख्य बन जाते हैं। जीवमुक्त शरीर के भी मौलिक रूप पांच ही हैं। उनके परिणामान्तर से होने वाले भेद भी असंख्य बन जाते हैं। प्रयोग-परिणाम, मिश्रपरिणाम और स्वभाव-परिणाम-ये सृष्टि रचना के आधारभूत तत्त्व हैं। प्रथम दो परिणाम जीवकृत सृष्टि है। स्वभाव परिणाम अजीव निष्पन्न सृष्टि है। वर्ण आदि का परिणमन पुद्गल के स्वभाव से ही होता है। इसमें जीव का कोई योग नहीं है।' सृष्टिवाद को विभिन्न भारतीय दर्शनों ने भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है। उसकी मीमांसा प्रयोग, मिश्र और स्वभावजन्य परिणमनों के संदर्भ में की जा सकती है। प्रयोग एवं विस्रसा बंध
बंध स्वाभाविक एवं प्रायोगिक दोनों प्रकार का होता है। स्वाभाविक बंध के दो प्रकार हैं-अनादिकालीन और सादिकालीन । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय के प्रदेशों का परस्पर स्वाभाविक सम्बन्ध है, वह अनादिकालीन है। इसका हेतु यह है कि ये तीनों अस्तिकाय व्यापक हैं। प्रत्येक अपने स्थान पर व्यवस्थित हैं। उनका संकोच एवं विस्तार नहीं होता। वे अपने स्थान को कभी नहीं छोड़ते। इनके प्रदेशों में परस्पर देश बंध है सर्वबंध नहीं है। जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं।
__सादि विस्रसा बंध तीन प्रकार का होता है'- 1. बंधन प्रत्ययिक 2. भाजन प्रत्ययिक 3. परिणाम प्रत्ययिक। 1. उत्तरज्झयणाणि, 3 6/8 3,10 5 आदि । 2. भगवई (खण्ड-2) 8/32-41 का भाष्य।
अंगसुत्ताणि2 (भगवई) 8/345,गोयमा ! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-पयोगबंधे च वीससाबंधे य। 4. वही, 8 / 346 5. वही, 8/347 6. वही, 8/3 48 7. वही, 8/350
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