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तत्त्वमीमांसा
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बंधनप्रत्ययिक-यह पुद्गल के स्कन्ध निर्माण का सिद्धान्त है। दो परमाणु मिलकर द्विप्रदेशी स्कन्ध का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार तीन परमाणु मिलकर तीन प्रदेशी यावत् अनंतपरमाणु मिलकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध का निर्माण करते हैं। इसबंधन के तीनहेतुबतलाए गए हैं। -विमात्रस्निग्धता, विमात्ररुक्षता एवं विमात्रस्निग्धरुक्षता। तीसरे विमात्रस्निग्धरुक्ष का अन्तर्भाव तो पहले दो हेतुओं में ही हो जाता है फिर उसका पृथक् उल्लेख क्यों किया गया, यह विमर्शनीय है। संभव ऐसा लगता है प्रथम दो हेतु सदृश बंध के नियम को प्रस्तुत कर रहे हैं एवं तीसरा विसदृश बंध का हेतु प्रतीत होता है।
समगुण स्निग्ध का समगुण स्निग्ध परमाणु के साथ बंध नहीं होता तथा इसी प्रकार समगुण रुक्ष परमाणु का समगुणरुक्ष परमाणु के साथ बंध नहीं होता। स्निग्धता और रुक्षता की मात्रा विषम होती है तब परमाणुओं का परस्पर बंध होता है। प्रज्ञापना में विसदृश और सदृश दोनों प्रकार के बंधनों का निर्देश है।'
स्निग्ध परमाणुओं का स्निग्ध परमाणुओं के साथ तथा रुक्ष परमाणुओं का रुक्ष परमाणुओं के साथ सम्बन्ध दो अथवा उनसे अधिक गुणों का अन्तर मिलने पर होता है। उनका समान गुण वाले अथवा एक गुण अधिक वाले परमाणु के साथ सम्बन्ध नहीं होता है।' स्निग्ध का दो गुण अधिक स्निग्ध के साथ बंध होता है। रुक्ष का दो गुण अधिक रुक्ष के साथ बंध होता है। यह सदृश बंध की प्रक्रिया है।
विसदृश बंध के नियम के अनुसार एक गुण स्निग्ध का एक गुण रुक्ष के साथ बंध नहीं होता। द्विगुण स्निग्ध का द्विगुण रुक्ष के साथ सम्बन्ध हो सकता है। यह समगुण का बंध है। द्विगुण स्निग्ध का त्रिगुण, चतुर्गुण आदि के साथ सम्बन्ध होता है। वह विषम गुण का बंध है। विसदृश सम्बन्ध में सम का सम्बन्ध और विषम का सम्बन्ध ये दोनों नियम मान्य हैं।
“आगम साहित्य में सृष्टिवाद' नामक लेख में आचार्य महाप्रज्ञ ने पुद्गल के बंध की प्रक्रिया का विस्तार एवं तुलनात्मक विमर्श किया है। प्रासंगिक होने के कारण हम उन चार्टस् का यहां पर ययावत् संग्रहण कर रहे हैं
1. अंगसुत्नाणि 2 (भगवई), 8/351 2. भगवतीवृत्ति, पत्र 395, समनिद्धयाए बन्धो न होइ समलुक्खयाए विन होइ।
वेमायनिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ।। 3. प्रज्ञापना, 1 3 /21 - 22 4. भगवतीवृत्ति, प. 3 95, निद्धस्स निद्रेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं ।
निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहन्नवज्जो विसमो समो वा ।। 5. अवस्थी, नरेन्द्र, शाश्वत, पृ. 218 - 220
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