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________________ आत्ममीमांसा 175 के रूप में ग्रहण होता रहा है। जब जीव को जीवास्तिकाय कहेंगे तो उसके प्रदेश असंख्य होंगे। उनको अनन्त नहीं कहा जा सकता। अनन्त प्रदेश की संगति सम्पूर्ण जीवों के समूह को जीवास्तिकाय कहने से ही हो सकती है। जीवकी देहपरिमितता भारतीय दर्शन अध्यात्म-प्रधान दर्शन है। उसने एक अभौतिक, अलौकिक तत्त्व के विषय में चिन्तन किया। उसके चिन्तन के आलोक में आत्म-तत्त्व उद्भासित हुआ। आत्म तत्त्व की स्वीकृति के साथ ही एक प्रश्न उभरा कि इस आत्म-तत्त्व का निवास स्थान कहां हैं? आत्मा की स्वीकृति के साथ ही आत्म-तत्त्व के परिमाण के संदर्भ में दार्शनिकों ने विचार किया है। आत्मा के परिमाण के संदर्भ में तीन प्रकार की अवधारणाएं उपलब्ध हैं 1. जघन्य परिमाण (अणुरूप) 2. मध्यम परिमाण (अंगुष्ठ, विलस्त, देह परिमाण आदि) 3. उत्कृष्ट परिमाण (व्यापक)। जैनेतरर्दशन की अवधारणा उपनिषद्-साहित्य में आत्म के परिमाण के संदर्भ में तीनों प्रकार की विचारणा प्राप्त हैं। मैत्री उपनिषद् में आत्मा को अणु से भी अणु माना गया है। बृहदारण्यक में आत्मा को जौ या चावल के दाने जितना माना गया है। कठोपनिषद् में आत्मा को अंगुष्ठ परिमाण कहा है।' कुछ की मान्यता के अनुसार आत्मा प्रादेश (वितस्ति) परिमाण है।' कौषीतकी उपनिषद् के अनुसार जैसे तलवार अपनीम्यान में और अग्नि अपने कुंड में व्याप्त है उसी तरह आत्मा शरीर में नख सेलेकर शिखा तक व्याप्त है। मुण्डकोपनिषद् में आत्मा के सर्वव्यापकत्व का उल्लेख है।' जब आत्मा को अवर्ण्य माना जाने लगा तब आत्मा को अणु से अणु ओर महान् से महान् भी कहा जाने लगा। न्याय-वैशेषिक' आदि सभी वैदिक दर्शनों ने आत्मा को व्यापक माना है। शंकर को 1. अनुयोगद्वार चूर्णि, पृ. 29 2. मैत्र्युपनिषद्, 6/38 3. बृहदारण्यक, (मद्रास, 1979)5/6/1,मनोमयोऽयं पुरुषोभा: सत्यस्तस्मिन्नन्तर्हृदयेयथाव्रीहिर्वायवोवा। 4. कठोपनिषद्, 2/2/12 5. छान्दोग्योपनिषद्, (अनु. स्वामी गम्भीरानन्द, कलकत्ता, 1992) 5/18/1 यस्त्वेतमेवं प्रादेशमात्रमभिविमानमात्मानं 6. कौषीतकी उपनिषद्, 35/4/20, एष प्रज्ञात्मा इदं शरीरमनुप्रविष्टः । 1. मुण्डकोपनिषद्, (गोरखपुर, सं. 2014) 1/1/6, नित्यं विभु सर्वगतं सुसूक्ष्म ....... | 8. श्वेताश्वतर, 3/20, अणोरणीयांन्महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः। 9. तर्कसंग्रह, पृ. 10, जीवस्तु प्रतिशरीरं भिन्नो विभुर्नित्यश्च । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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