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जैन आगम में दर्शन
अन्तर अवश्य है। पुद्गल के परमाणु पृथक्-पृथक् होते हैं किंतु आत्मा के परमाणुओं को विभक्त नहीं किया जा सकता। वे असंख्य परमाणु निरन्तर मिले हुए रहते हैं इसलिए उनका नाम प्रदेश है। आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि
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“प्रदेश और परमाणु में परिमाणात्मक अन्तर नहीं। परिमाण में दोनों समान है। उनमें केवल संघातात्मक अन्तर है । . आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं/ असंख्य परमाणु हैं वे कभी पृथक् नहीं होते । हमेशा संघात रूप में रहते हैं, उनको परमाणु नहीं कहा गया, प्रदेश कहा गया। जितने स्थान का अवगाहन परमाणु करता है उतने स्थान का ही अवगाहन प्रदेश करता है । इस आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं अर्थात् असंख्य परमाणु हैं। इसका अर्थ है- आत्मा के अवयव हैं। आत्मा के ये अवयव हमेशा संघात रूप में ही रहते हैं । जैन दर्शन में अस्तित्व का अर्थ है - परमाणु या परमाणु-स्कन्ध । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय - ये चार परमाणु-स्कन्ध हैं। इनके प्रदेश कभी वियुक्त नहीं होते, इसलिए ये प्रदेश-स्कन्ध कहलाते हैं । पुद्गलास्तिकाय के परमाणु संयुक्त और वियुक्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं, इसलिए उसमें परमाणु और परमाणुस्कन्ध दोनों अवस्थाएं मिलती हैं। पांच अस्तिकायों में एक जीवास्तिकाय के प्रदेश -स्कन्ध चैतन्यमय है । शेष के प्रदेश - स्कन्ध एवं परमाणु चैतन्यरहित हैं, अजीव हैं। " जीवास्तिकाय और जीव
जैन दर्शन के अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव-ये पांच अस्तिकाय हैं । ' प्रश्न उपस्थित होता है कि जीवास्तिकाय और जीव में क्या अन्तर है ? सामान्यतः जीव और जीवास्तिकाय को एकार्थक माना जाता है । भगवती के बीसवें शतक में जीव और जीवास्तिकाय को एक माना गया है । ' किंतु इसी आगम के दूसरे शतक में प्रदत्त जीव एवं जीवास्तिकाय की भिन्नता मननीय है । जीव अनन्त हैं। उन अनन्त जीवों के समुदय का नाम जीवास्तिकाय है । एक जीव जीवास्तिकाय नहीं कहलाता तथा एक कम जीव वाले जीवास्तिकाय को जीवास्तिकाय नहीं कहा जाता। सभी जीवों का समुदय जीवास्तिकाय है । ' जीव जीवास्तिकाय का एक देश है ।' प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशात्मक है जबकि जीवास्तिकाय के प्रदेश अनन्त बतलाए गए हैं।' यह अनन्त जीवों की अपेक्षा से है अर्थात् जीव संख्या की दृष्टि से अनन्त है तथा प्रत्येक जीव जीवास्तिकाय का एक प्रदेश माना गया है । अतः जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेश हो जाते हैं। यद्यपि उत्तरवर्ती काल में जीव का ही जीवास्तिकाय
1. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैन दर्शन और अनेकान्त, पृ. 87
2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 2/124
3. वही, 20 / 17,
4. वही, 2 / 135
. जीवे इ वा, जीवत्थिकाए इ वा ।
5. भगवतीवृत्ति 2 / 135, उपयोगगुणो जीवास्तिकाय: प्राग्दर्शितः, अथ तदंशभूतो जीवः ।
6. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 2 / 135,
तिण्हं पि पदेसा अणंता भाणियव्वा ।
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. आगासत्थिकाय जीवत्थिकाय-पोग्गलत्थिकाया विएवं चेव, नवरं
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