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________________ आत्ममीमांसा चयापचय, प्रजनन और संवेदन ये कोशिका के लक्षण दिए गए हैं। इनको ही जीव- अजीव की भेदरेखा ज्ञापक तत्त्व माना जा सकता है। एक मशीन खा सकती है किंतु उसके शरीर में वृद्धि नहीं हो सकती । मशीन को चलाने के लिए पेट्रोल, ईंधन आदि दिए जाते हैं। उससे वह चलती तो रहती है किंतु उस आहार का सात्मीकरण वह नहीं कर सकती। जीव पदार्थ अपने आहार का ग्रहण, परिणमन एवं उत्सर्ग आहार पर्याप्ति के द्वारा कर लेता है।' यह सामर्थ्य जीव में ही है अजीव में नहीं है । सजीव पदार्थ ही अपने द्वारा गृहीत आहार का सात्मीकरण कर सकता है । यह सात्मीकरण की क्षमता जीव पदार्थ में ही है, अजीव में नहीं है अत: पर्याप्ति भी जीव का लक्षण है । यन्त्र में प्रजनन क्षमता नहीं है । वे अपने सजातीय से न तो उत्पन्न होते हैं और न ही सजातीय को पैदा करते हैं। इसके विपरीत जीव सजातीय से पैदा भी होता और सजातीय को पैदा भी करता है । भी यंत्र मनुष्यकृत नियमन के बिना इधर-उधर घूम नहीं सकता । तिर्यग् गति नहीं कर सकता । एक रेलगाड़ी पटरी पर दौड़ सकती है, हवाई जहाज आकाश में उड़ सकता है किंतु अपनी इच्छा से एक इंच भी इधर-उधर नहीं हो सकता, जबकि एक छोटी-सी चींटी भी अपनी इच्छा से गति करती है । यंत्र क्रिया का नियामक चेतनावान् प्राणी है । संसारी जीवों की पहचान के उपर्युक्त लक्षण जीव की पहचान के मुख्य साधन बनते हैं । जीव की पहचान एवं उसको अजीव से पृथक् करने के कुछ असाधारण लक्षण पंचास्तिकाय में उपलब्ध हैं 173 जादि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुखं बिभेदि दुक्खादो । कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं ॥ ' जीव समस्त पदार्थों को जानता, देखता है। वह सुख की इच्छा करता है, दु:ख से भयभीत होता है। हितकारी एवं अहितकारी कार्य करता है, उनके फल भी वही भोगता है । ज्ञान, दर्शन, सुख की इच्छा, भय आदि जीव की पहचान के साधन हैं । आत्मा के अवयव जीव तत्त्व का सिद्धान्त अनेक दर्शनों में स्वीकृत है। जीव अंगुष्ठ परिमाण है, देह परिमाण है अथवा व्यापक है - यह विषय भी चर्चित है, किंतु उसके कितने परमाणु या प्रदेश हैं-यह विषय कहीं भी उपलब्ध नहीं है । अस्तिकाय को प्रदेशात्मक बतलाकर भगवान् महावीर ने उसके स्वरूप को एक नया आयाम दिया है। आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है । आत्मा के प्रदेश (परमाणु) होते हैं ' - यह भगवान् महावीर की मौलिक स्थापना है। पुद्गल अचेतन तत्त्व के भी परमाणु और आत्मा के भी परमाणु । पुद्गल और आत्मा के परमाणुओं में एक मौलिक जैन सिद्धान्त दीपिका, 3 / 11 Jain Education International 1. 2. पंचास्तिकाय, गाथा 1 22 3. (क) ठाणं, 4/ 495, चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए लोगागासे एगजीवे । (ख) नयचक्र, गाथा 1 21 णिच्छदो असंखदेसो हु से णेओ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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