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________________ 172 जैन आगम में दर्शन है।' इन भावों के आधार पर जीव अपने व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का निर्माण करता है। पांच भाव जीवके व्यक्तित्व निर्धारण के पेरामीटर हैं। व्यक्तिक्यों है ? कैसा है ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान इन भावों के आधार पर ही किया जा सकता है। भाव जीव की पहचान के मुख्य एवं महत्त्वपूर्ण घटक हैं। भावों के आधार पर प्राणी की भौतिक, मनोवैज्ञानिक, चैतसिक एवं आत्मिक अवस्थिति की व्याख्या की जा सकती है। उसके शरीर का आकार-प्रकार, बुद्धि की सामान्यता एवं विशिष्टता, संवेगों की बहुलता एवं न्यूनता आदि तथ्यों का संज्ञान पांच भावों के आधार पर करना दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हो सकता है। ___ जीव उपयोग लक्षण वाला है। उवओगलक्खणे णं जीवे।' उपयोग, प्रवृत्ति के द्वारा जीवत्व की अभिव्यक्ति होती है। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव (आत्म-प्रवृत्ति) से जीव-भाव (जीव होने) को प्रकट करता है। जीवस्वरूप से अमूर्त और चैतन्यमय है, किंतु प्रत्येक संसारी जीव शरीरधारी है। शरीरधारी होने के कारण वह मूर्त है, उसका चैतन्य अदृश्य है। वह क्रिया अथवा प्रवृत्ति के द्वारा दृश्य बनता है। जीव की पहचान ज्ञान से नहीं होती, ज्ञानपूर्वक होने वाली प्रवृत्ति से होती है। जीव उत्थान, गमन, शयन आदि आत्मभावों के द्वारा अपने चैतन्य को अभिव्यक्त करता है। विशिष्ट उत्थान विशिष्ट चेतनापूर्वक होता है। यह चैतन्यपूर्वक होने वाली प्रवृत्ति ही जीव का लक्षण बनती है। जीव का लक्षण उपयोग बतलाया गया है। ज्ञान के अनन्त पर्याय हैं। ज्ञेय के अनुसार ज्ञान के पर्याय का परिवर्तन होता रहता है, इसलिए उपयोग-चेतना का व्यापार, जीव का लक्षण बनता है। प्रयत्न एवं उपयोग जीव और अजीव की भेदरेखा है। शक्ति के द्वारा जीव अपने जीवत्व को अभिव्यक्त करता है। मतिज्ञान की उपलब्धि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होती है किंतु मतिज्ञान की प्रवृत्ति के लिए नामकर्म का उदय एवं वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम की आवश्यकता है। शक्ति के बिना ज्ञान का भी उपयोग नहीं हो सकता। सांख्य दर्शन जीव में शक्ति नहीं मानता, उसके अनुसार शक्ति प्रकृति में पाई जाती है किंतु जैन दर्शन शक्ति जीव में मानता है। जीव में अनन्त ज्ञान एवं अनन्त दर्शन स्वभावत: है। किंतु उसका उपयोग वीर्यान्तराय कर्म के विलय से ही संभव है। जीव के व्यावहारिक लक्षण सजातीय-जन्म, वृद्धि, सजातीय-उत्पादन, क्षत-संरोहण और अनियमित तिर्यग्गति-ये जीव के व्यावहारिक लक्षण हैं। खाना, पीना, सोना, उठना, निद्रा, भय, प्रजनन, वृद्धि आदि ही व्यवहार जगत् में जीव की पहचान के साधन बनते हैं। बॉयोलॉजी में वृद्धि, 1. तत्त्वार्थसूत्र 2/1, औपशमिकक्षायिकभावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च । 2. अंगसुत्ताणि भाग-2 (भगवई) 2/137 3. वही,2/136,जीवेणंसउट्ठाणे सकम्मे सबलेसवीरिएसपुरिसक्कारपरक्कमे आयभावेणंजीवाभावं उवदंसेतीति। 4. भगवई (खण्ड-1) पृ. 294 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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