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________________ आत्ममीमांसा 171 पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी एवं असंज्ञी दोनों प्रकार के होते हैं। मन का विकास पांच इन्दियों की प्राप्ति के बाद ही हो सकता है। शरीर की विशेष संरचना के साथ मन की प्राप्ति का सम्बन्ध है। एकेन्द्रिय जीवों में मात्र एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है। ये जीव स्थावर ही होते हैं। द्वीन्द्रिय जीवों में स्पर्शन एवं रसन, त्रीन्द्रिय में स्पर्शन, रसन एवं घ्राण चतुरिन्द्रिय में स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु तथा पंचेन्द्रिय में स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु एवं श्रोत्र-ये इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियों का क्रम निर्धारित है अर्थात् जो एकेन्द्रिय जीव है। उनके स्पर्शन इन्द्रिय ही होगी। द्वीन्द्रिय आदि में भी अपनी निर्धारित इन्द्रिय ही होगी। स्पर्शन के बाद ही रसन इन्द्रिय की प्राप्ति हो सकती है, रसन की प्राप्ति के बाद ही घ्राण उपलब्ध होगी। इन्द्रिय प्राप्ति का यह क्रम निर्धारित है। इसमें किसी भी प्रकार का व्युत्क्रम नहीं हो सकता। त्रस जीवों की सजीवता प्रत्यक्षगोचर है अत: उनके जीवत्व सिद्धि में हेतु के प्रयोग की आवश्यकता नहीं है। आगम साहित्य में त्रस जीवों के भेदों का विस्तार से वर्णन हुआ है। जीव स्वरूप, अभिज्ञान एवं लक्षण प्रत्येक जीव चेतनायुक्त है। आत्मा ही विज्ञाता है। 'जे आया से विण्णाया।'' चेतना आत्मा का स्वरूप है। प्राणीमात्र में उसका न्यूनाधिक मात्रा में सद्भाव होता है। यद्यपि सत्ता रूप में चैतन्य शक्ति सब प्राणियों में अनन्त होती है, पर विकास की अपेक्षा वह सबमें एक जैसी नहीं होती। ज्ञान के आवरण की सघनता एवं विरलता के अनुसार जीव में चेतना का विकास न्यून या अधिक होता है। एकेन्द्रिय जीवों में भी कम-से-कम एक इन्द्रिय का अनुभव अवश्य ही मिलेगा। यदि वह न रहे, तब जीव और अजीव में कोई अन्तर ही नहीं रहता। नंदी में कहा गया है कि सब जीवों के पूर्णज्ञान का अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित रहता है। यदि वह भी आवृत हो जाए तो जीव अजीव बन जाएगा। ज्ञान की आंशिक रूप में नित्य अनावृतता जीव मात्र में उपलब्ध है। अत: चेतना जीव का नैश्चयिक लक्षण है। जीव का अस्तित्व निरुपाधिक है। उसके उपाधि कर्म के उदय अथवा विलय से होती है, जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव अज्ञानी कहलाता है, उसके क्षयोपशम से जीव मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी कहलाता है । स्थानांग में औदायिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक एवं सन्निपातिक इन छह भावों का उल्लेख है। इन भावों के आधार पर ही सांसारिक जीवों के व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। औदयिक भाव से मनुष्य का बाहरी व्यक्तित्व निर्मित होता है। क्षायोपशमिक भाव से उसके आन्तरिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है। आचार्य उमास्वाति ने पांच भावों को जीव का स्वतत्त्व या स्वरूप बतलाया 1. आयारो, 5/104 2. नंदी, सूत्र 70 3. ठाणं,6/124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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