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________________ 170 जैन आगम में दर्शन अविकसित को एक जैसा कैसे माना जा सकता है ? जब इस तथ्य की ओर ध्यान गया होगा तब कर्मसिद्धांत के आधार पर त्रस और स्थावर की व्यवस्था हुई। जिसके स्थावर नामकर्म का उदय है वे स्थावर हैं भले ही वे गतिशील क्यों न हों तथा जिनके त्रसनामकर्म का उदय हैं वे त्रस हैं। आगमों में जब अग्नि और वायु को त्रस कह दिया गया तब उस वक्तव्य की समीचीनता लब्धित्रस एवं गतित्रस के आधार पर प्रस्तुत की गई। आगमिक वक्तव्यों की तर्कसंगत व्याख्या के लिए गति त्रस एवं लब्धित्रसजैसा विभाग करना आवश्यक था । और यह विभाग जनसाधारण के लिए बुद्धिगम्य भी है। एकेन्द्रिय-स्थावर अन्यत्रस ___ वर्तमान में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में पृथ्वी, अप, तेजस, वायु एवं वनस्पति के जीव स्थावरकाय के रूप में एवं द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीव त्रसकाय के रूप में एकस्वर से स्वीकृत हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम पृथ्वी आदि पांचों प्रकार के जीवों को एक साथ स्थावर किसने कहा है यह अन्वेषणीय है। स्थानांग, उत्तराध्ययन की टीका आदि में तो इन पांचों को स्थावर कहा गया है। शरीर रचना और ज्ञान का सम्बन्ध शारीरिक दृष्टि से जीवछह प्रकार के होते हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक। ज्ञान के विकास क्रम के आधार पर वे पांच प्रकार के होते हैं - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान शरीर-रचना से सम्बन्ध रखता है। जिस जीव में इन्द्रिय और मानस ज्ञान की जितनी क्षमता होती है, उसी के आधार पर उनकी शरीर-रचना होती है और शरीर-रचना के आधार पर ही उस ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। स्थानांग सूत्र में शरीर-रचना और इन्द्रिय तथा मानसज्ञान के सम्बन्ध पर विमर्श हुआ है। स्थानांग के टिप्पण में इस सम्बन्ध को तालिका के माध्यम से प्रस्तुत किया हैजीव बाह्यशरीर (स्थूल शरीर) इन्द्रिय ज्ञान 1. एकेन्द्रिय (पृथ्वी, अप्, औदारिक स्पर्शनज्ञान तेजस्,वायु, वनस्पति) 2. द्वीन्द्रिय औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) रसन, स्पर्शननान 3. त्रीन्द्रिय औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान 4. चतुरिन्द्रिय औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान 5. पंचेन्द्रिय (तिर्यंच) औदारिक (अस्थिमांस शोणित श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्नायुशिरायुक्त) स्पर्शनज्ञान 6. पंचेन्द्रिय (मनुष्य) औदारिक (अस्थिमांस शोणित स्नायु श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, शिरायुक्त) स्पर्शनज्ञान 1. ठाणं, टिप्पण 2/155-160 पृ. 125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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