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आत्ममीमांसा
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त्रस-स्थावर के विभाग की आगमकालीन अवधारणा
आचारांग से लेकर विपाकसूत्र तक ग्यारह अंग आगमों में, औपपातिक, राजप्रश्नीय आदि उपांग आगमों में, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि मूल आगमों में पृथ्वीकाय, अप्काय आदि पांचों को एक साथ स्थावरकाय के रूप में उल्लिखित नहीं किया है। बल्कि स्थानांग, उत्तराध्ययन एवं जीवजीवाभिगम में तो छह कायों में से तीन को स्थावर एवं तीन को त्रस कहा है। तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके स्वोपज्ञभाष्य तक यही अवधारणा प्रचलित है।
दशवैकालिक में 'षड्जीवनिकाय' के अन्तर्गत त्रसकाय का वर्णन हुआ है। वहां वसकाय में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नारक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव का ग्रहण हुआ है।' इसका तात्पर्य हुआ कि इनके अतिरिक्त जीव स्थावर हैं। एकेन्द्रिय का उल्लेख त्रसकाय में नहीं है अत: एकेन्द्रिय जीव स्थावर होते हैं । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय एकेन्द्रिय हैं। प्रज्ञापना में संसारसमापन्नक जीवों का उल्लेख पांच इन्द्रियों के माध्यम से हुआ है वहां स्थावरकाय एवं त्रसकाय के भेद से जीवों का विभाग नहीं है। जबकि जीवाजीवाभिगम में जीवों का विभाग त्रस एवं स्थावर के आधार पर हुआ है। आगम व्याख्या साहित्य में त्रस एवं स्थावर
स एवं स्थावर के सम्बन्ध में यह ध्यातव्य है कि जैन आगम साहित्य में पृथ्वी आदि पांच कायों को एक साथ स्थावर काय के रूप में अभिव्यंजित नहीं किया है। उत्तरवर्ती टीका साहित्य में उनका उल्लेख स्थावरकाय के रूप में हो गया है।
उत्तराध्ययन के टीकाकार तेजस्काय एवं वायुकाय को स्थावरकाय ही मानते हैं। उत्तराध्ययन में इनका उल्लेख त्रसकाय के रूप में है। टीकाकार ने लब्धिवस एवं गतित्रस के भेद से त्रस जीव दो प्रकार के माने हैं। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव लब्धित्रस हैं। अग्नि और वायुगतित्रस हैं। यद्यपि इनके स्थावर नामकर्म का उदय है फिर भी गतिशीलता के कारण ये त्रस कहलाते हैं। गति एवं लब्धि त्रस
विचार करने से प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में केवल गति के आधार पर त्रस और स्थावर का विभाग किया गया होगा। इसी कारण अग्नि और वायु को त्रस कहा गया है किंतु एक चींटी की गति एवं वायु की गति एक जैसी नहीं होती। चींटी की गति इच्छाप्रेरित है। वह अपने हित के संपादन एवं अहित की निवृत्ति के लिए गति करती है जबकि अग्नि एवं वायु की गति में ऐच्छिक प्रेरणा नहीं है, वेस्वभावत: ही गतिशील हैं। मात्र गति के आधार पर विकसित
1. दसवे आलियं, 4/9 2. पण्णवणा, 1/15 3. उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य, वृत्ति पत्र-693, दुविहा खलु तसजीवा-लद्धितसा चेव गतितसा चेव । ततश्च
तेजोवाम्वोर्गतित उदाराणां च लब्धितोऽपि त्रसत्वमिति । तेजोवाय्वोश्च स्थावरनामकर्मोदयेऽप्युक्तरूपं वसनमस्तीति त्रसत्वम्।
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