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________________ 168 जैन आगम में दर्शन स्थानांग में भी त्रस एवं स्थावर का यही वर्णन प्राप्त है। वहां भी तेजस्काय, वायुकाय एवं उदार त्रस जीवों को त्रस कहा है तथा पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय को स्थावर कहा है।' जीवाजीवाभिगम में त्रस एवं स्थावर के भेद से दो प्रकार के संसार समापन्नक जीवों का उल्लेख है। इस आगम में भी पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय को स्थावर कहा है' तथा तेज, वायु एवं उदार (स्थूल) त्रस का त्रस रूप में उल्लेख है। त्रस एवं स्थावर का यह विभाग उत्तराध्ययन जैसा ही है। तत्त्वार्थसूत्र में भी त्रस एवं स्थावर के सम्बन्ध में उपर्युक्त विभाग ही प्राप्त है। यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदाय मान्य सूत्रों में भिन्नता है। वहां पृथ्वी आदि पांचों को स्थावर एवं द्वीन्द्रिय आदि को त्रस कहा है।' स्थानांग में दो कायप्रज्ञस हैं-त्रस और स्थावर । वहां पर इन दोनों के दो-दो भेद किए हैं-भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक।' पांचवें स्थान में पांच स्थावरकाय एवं उनके पांच अधिपतियों का उल्लेख है। किंतु वे नाम भिन्न प्रकार के हैं। स्थावरकाय के इन्द्र, ब्रह्म आदि नाम उनके अधिपतियों के आधार पर किए गए हैं। स्थानांग की टीका में इन्द्र, ब्रह्म, शिल्प, सम्मति एवं प्राजापत्य को क्रमश: पृथ्वी, अप, तेज, वायु एवं वनस्पति कहा है। टीका में कहा गया है कि जिस प्रकार दिशाओं के अधिपति इन्द्र, अग्नि आदि हैं, नक्षत्रों के अधिपति अश्वि, यम दहन आदि हैं, शक्र दक्षिण लोक का अधिपति और ईशान उत्तरलोक का अधिपति, उसी प्रकार पांच स्थावर कायों के भी क्रमश: इन्द्र, ब्रह्म, शिल्प, सम्मति और प्राजापत्य-अधिपति हैं।' स्थानांग में प्राप्त स्थावरकाय के ये नाम प्रचलित नामों के साथ किस प्रकार से सामंजस्य रखते हैं ? स्थानांग की टीका में इसका कोई उल्लेख नहीं है। केवल अमुक को अमुक कहा जाता है, यही उल्लेख है। स्थावर काय के सम्बन्ध में ऐसा उल्लेख अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। स्थानांग स्थावरकाय के प्रचलित नामों को छोड़कर अन्य नामों का उल्लेख क्यों करता है ? यह भी अन्वेषणीय है। I. ठाणं, 3/326-327 2. जीवाजीवाभिगमे, 1/11, ........ 'दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता' ते एवमाहंसु तं जहा-तसा चेव थावराचेव। 3. वही, 1/12,थावरा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया आउकाइया वणस्सइकाझ्या । 4. वही, 1/75, तसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-तेउक्काइया वाउक्काइया ओराला तसा । 5. तत्त्वार्थसूत्र, 2/13,14, पृथिव्यम्बुवनस्पतय: स्थावरा: । तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसा: । 6. तत्त्वार्थवार्तिक, 2/13, 14, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावरा: । द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः । 7. ठाणं, 2/16 4-166, दो काया पण्णत्ता, तं जहा-तसकाए चेव थावरकाए चेव। तसकाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-भवसिद्धिए चेव अभवसिद्धिए चेव । थावरकाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-भवसिद्धिए चेव अभवसिद्धिए चेव। 8. वही, 5/119,पंच थावरकाया पण्णत्ता, तंजहा-इदे थावरकाए, बंभे थावरकाए, सिप्पेथावरकाए सम्मती थावरकाए पायावच्चे थावरकाए। पंच थावरकायाधिपती पण्णत्ता,तंजहा-इंदे थावरकायाधिपती बंभेथावरकायाधिपतीसिप्पे थावरकायाधिपतीसम्मती थावरकायधिपती, पायावच्चे थावरकायाधिपती। स्थानांग, वृ. प. 293 (पृ. 196) स्थावरनामकर्मोदयात् स्थावरा:-पृथिव्यादय:तेषां काया राशय: स्थावरो वा काय:-शरीरं येषां ते स्थावरकाया: इन्द्रसम्बन्धित्वात् इन्द्र: स्थावरकाय: पृथिवीकाय:, एवं ब्रह्मशिल्पसम्मतिप्राजापत्या अपि अप्कायादित्वेन वाच्या इति ।....... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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