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________________ आचार मीमांसा 273 श्रेष्ठ है अन्य तो ऐसे ही मिथ्या भ्रम में घूम रहे हैं। उनकी यह मानसिक अवधारणा वाणी में अभिव्यक्त होकर समस्या भी उत्पन्न कर देती है। सूत्रकृतांग में इस मनोवृत्ति पर प्रहार करते हुए निर्देश दिया है कि "संयत आत्मा वाले साधुजीवी भिक्षु दिखाई देते हैं, फिर भी ये मिथ्याजीवी हैं--ऐसी दृष्टि धारण न करे।' अनेकांत दर्शन का प्रवक्ता एवं समर्थक निंदात्मक भाषा का प्रयोग नहीं करता। किसी के उपरोध पर नहीं जीने वाले क्षान्त, दान्त और जो जितेन्द्रिय होते हैं, कुतूहल तथा अट्टहास का वर्जन करने वाले होते हैं, उनको मिथ्याजीवी कहना वाणी का असंयम है। वे संन्यासी चाहे स्वयूथिक हों या अन्ययूथिक, उनके विषय में ये बेचारे बाल तपस्वी हैं, सब कुछ मिथ्या-आचरण और लोक विरुद्ध व्यवहार करते हैं-ऐसा नहीं कहना चाहिए। साधु को यह प्रशिक्षण दिया गया कि वह परचिंता छोड़कर श्रेष्ठ ध्यान में अपने मन को नियोजित करें किंतु विवाद हिंसा को उत्पन्न करने वाले व्यवहार का सर्वथा वर्जन करें। कोई किसी को दान दे रहा है। उस समय साधु का व्यवहार कैसा होना चाहिए इसका निर्देश भी सूत्रकृतांग में प्राप्त है। किसी ब्राह्मण या भिक्षु को भोजन करवाने में धर्म है या नहीं ? पुण्य है या नहीं ? इनका उत्तर अस्ति-नास्ति में मुनि नहीं दे। दान के लिए जो त्रस और स्थावर प्राणी मारे जाते हैं, उनके संरक्षण के लिए 'पुण्य है' यह न कहे। जिनके लिए उस प्रकार का अन्न-पान बनाया जाता है, उन्हें उसकी प्राप्ति में विघ्न होता है, इसलिए 'पुण्य नहीं है' यह भी न कहे। जो दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों की वध की इच्छा करते हैं। जो उसका प्रतिषेध करते हैं वे उनकी वृत्ति का छेद करते हैं। जो धर्म या पुण्य है या नहीं है-ये दोनों नहीं कहते वे कर्म के आगमन का निरोध कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जहां वर्तमान में दान की प्रवृत्तियां चल रही हों, उन्हें लक्षित कर धर्म या पुण्य होता है या नहीं होता, इस प्रकार का प्रश्न करे तब मुनि को मौन रहना चाहिए। यह उसका वाणी का विवेक है। दक्षिणा देने से प्रतिलाभ (दाता को पुण्य) होता है अथवा नहीं होता है, मेधावी ऐसा न कहें, शांतिमार्ग की वृद्धि करें।' सूत्रकृतांग चूर्णिकार ने इस विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा हैपात्र को श्रद्धापूर्वक इष्ट या अनिष्ट वस्तु का दान देने पर महान् फल होता है। अपात्र को दिया हुआ दान वध के लिए होता है। फिर भी अहिंसक को अस्ति-नास्ति-दोनों प्रकार के वचन से बचना चाहिए । नास्ति (प्रतिलाभ नहीं होता) कहने पर अन्तराय का दोष लगता है और 1. सूयगडो 2/5/31, दीसंति णिहुअप्पाणो भिक्खुणो साहुजीविणो। एए मिच्छोवजीवित्ति इति दिट्ठिण धारए। 2. वही, 2 पृ. 30 8 (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 2 5 6, ते न कस्यचिदुपरोधविधानेन जीवन्ति, तथा क्षान्ता दान्ता जितक्रोधा: सत्यसंधा दृढवता युगान्तरमात्रदृष्ट यः....मिथ्यात्वोपजीविन इत्येवं दृष्टिं न धारयेत्नैवंभूतमध्यवसायं कुर्यान्नाप्येवंभूतां वाचं निसृजेद् यथैते मिथ्योपचारप्रवृत्ता मायाविन इति। .......ते च स्वयूथ्या वा भवेयुस्तीर्थान्तरीया वा तावुभावपिन वक्तव्यौ साधुना।) 3. सूयगडो, ।/11/16-21 4. सूयगडो,,2/5/32, दक्खिणाए पडिलंभो अत्थि वाणत्थि वा पूणो।ण वियागरेज्न मेहावी, संतिमग्गंच बूहए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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