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जैन आगम में दर्शन
आवश्यक है। कहां, किसका प्रयोग हो, इसका ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान होने पर साधना का पथ सुगम हो जाता है। आचार में तटस्थता
हिंसा अकरणीय है। अहिंसा सर्वदा अनुपालनीय है, यह आचार का सार्वभौमिक सिद्धांत है किन्तु अनेक बार ऐसी स्थिति पैदा होती है कि इस सिद्धान्त को परिस्थिति विशेष के कारण वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता। आचार के क्षेत्र में ऐसी समस्या उपस्थित होती रही है।
जीवन का व्यवहार बहुत जटिल है, इसलिए अहिंसक को कहीं वक्तव्य और अवक्तव्य, कहीं वचन और कहीं मौन का सहारा लेना पड़ता है। सब समस्याओं को एक ही प्रकार से समाहित नहीं किया जा सकता। सूत्रकृतांग में ऐसी समस्याओं को उपस्थापित कर उनका समाधान देने का प्रयत्न किया गया है। 'प्राणी वध्य है' अहिंसक को ऐसा नहीं कहना चाहिए किंतु किसी समस्या के संदर्भ में 'यह अवध्य है' यह कहना भी व्यवहार-संगत नहीं होता, इसलिए ऐसी परिस्थिति में अहिंसक को मौन रहना चाहिए। कोई व्यक्ति सिंह आदि हिंस्र पशुओं को मारने का विचार कर मुनि के पास आता है और पूछता है-मैं इन्हें मारूं या न मारूं ? 'उन्हें मारो' ऐसा कहा ही नहीं जा सकता और वे हिंस्र पशु अनेक मनुष्यों को मार रहे हैं, उपद्रव कर रहे हैं, इसलिए 'मत मारो'--यह कहना भी व्यवहार संगत नहीं होता। इस अवस्था में अहिंसा के लिए मौन रहना ही श्रेय होता है।
शीलांकाचार्य ने वध्य और अवध्य कहने के प्रसंग में मौन रहने के कारण को प्रस्तुत करते हुए कहा है- चोर, परदारिक आदि वध्य हैं-यह कहने से हिंसा कर्म का अनुमोदन होता है और 'अवध्य' कहने पर चोरी आदि का अनुमोदन होता है, इसलिए अहिंसक ऐसे प्रसंग में मौन रहे। इसी प्रकार सिंह, बाघ, बिल्ली आदि हिंस्र जंतुओं को मारते हुए देख मध्यस्थता का अवलम्बन ले।'
आगमों में स्थान-स्थान पर आचार-व्यवहार के संदर्भ में वाणी संयम का उपदेश प्राप्त है। यह व्यक्ति की एक प्रकार की सहज मनोवृत्ति है कि वह अपने से इतर को विशुद्ध स्वीकार नहीं करता। इसकी यह मानसिकता अवधारणा होती है कि मेरे द्वारा स्वीकृत साधना पथ ही 1. सूयगडो (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1986) 2/5/30, पृ. 307-308 2. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 411, वज्झं पाणाति मणसावि ण सम्मतं किमुत वक्तुं ? कम्मुणा वा कर्तुं अतोन वक्ति वध्या:
प्राणिन:, अथ अवज्झा, कथं न वाच्यं ? नन्वेतदपि लोकविरुद्धमेव, ..........यदि कश्चित सिंहमृगमार्जारादीक्षुद्रजन्तुजिघांसुब्रूयात्-भो साधो किमेतान् क्षुद्रजंतून् घातयामि उत मुंचामीति, तत्र न वक्तव्यं
मुंच मुंचेति, ते हि मुक्ता अनेकानां घाताय भविष्यन्ति, एवं चौरमच्छवद्धबंधादयो न वक्तव्या मुंच घातयेति वा । 3. सूयगडो 2, पृ. 308 (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 256, वध्याश्चौरपरदारिकादयोऽवध्या वा
तत्कर्मानुमतिप्रसङ्गादित्येवंभूतां वाचं स्वानुष्ठानपरायण: साधुः परव्यापारनिरपेक्षो न निसृजेत्, तथा हि सिंहव्याघ्रमार्जारादीन्परसत्त्वव्यापादनपरायणान् दृष्टवा माध्यस्थ्यमवलम्बयेत्।)
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