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आचार मीमांसा
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के भेद से उसके नौ विकल्प बन जाते हैं। आचारांग में संक्षेप में इन क्रियाओं का उल्लेख हुआ है।' क्रिया कर्म-पुद्गलों का आश्रवण करती है, इसलिए इसका दूसरा नाम आश्रव है।'
आगम साहित्य में क्रियाकेतीन वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं। प्रथम वर्गीकरणसूत्रकृतांग का है, उसमें क्रिया के तेरह प्रकार निर्दिष्ट हैं। दूसरा वर्गीकरण स्थानांग का है। वहां पर मुख्य और गौण भेद से क्रिया के बहत्तर प्रकारों का उल्लेख है। भगवती के अनेक स्थानों पर क्रियाओं का उल्लेख है।' प्रज्ञापना का बाईसवां पद क्रियापद है। क्रिया का तीसरा वर्गीकरण तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध है। वहां पच्चीस क्रियाओं का निर्देश है। कर्म-बंध किस-किस प्रकार से हो सकता है, इसका अवबोध क्रियाओं के माध्यम से हो जाता है। प्रस्तुत प्रसंग में क्रियाओं की सूचना मात्र देना अभीप्सित था, अत: विस्तार नहीं किया गया है। विस्तार के इच्छुक व्यक्ति तद्-तद् स्थानों का अवलोकन कर सकते हैं। क्रिया से बचने वाला कर्मबन्ध से बच जाता है। क्रिया आश्रव है। आश्रव मोक्ष का बाधक तत्त्व है। अक्रिया अर्थात् संवर। संवर मोक्ष का साधक तत्त्व है। अत: आचार के अनुपालन से साधक क्रिया का त्याग कर अक्रिया की ओर प्रस्थान करता है। अक्रिया की पूर्णता प्राप्त हो जाने पर उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। प्रस्तुत प्रसंग में अक्रिया का अर्थ निष्क्रियता नहीं किंतु हिंसा से निवृत्ति है। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति
सामान्यतः जैन धर्म को निवृत्तिवादी दर्शन कहा जाता है, इस अवधारणा में सत्यांश है किन्तु यह सर्वथा सत्य नहीं है। पूर्ण निवृत्ति या अक्रिया की स्थिति तो चौदहवें गुणस्थान में ही आ सकती है तथा उस गुण स्थान का समय अत्यल्प है। उसके अनन्तर मोक्ष अवश्यंभावी है। सामान्य जीवन-व्यवहार चलाने के लिए प्रवृत्ति की आवश्यकता है। जैन धर्म कोरा निवृत्तिवादी नहीं है। एक सीमा तक उसे प्रवृत्ति भी माना है। उसमें दोनों का समन्वय है।
साधना पथ पर आरूढ़ साधक के लिए भगवान महावीर ने गुप्ति के साथ समिति का भी प्रावधान किया है। संन्यस्त होते ही शिष्य पूछता है- अब मैंने एक नई जीवन शैली का स्वीकरण कर लिया है, जीवन यात्रा का भी मुझे निर्वहन करना है, आप मेरा मार्ग दर्शन करें कि मैं कैस अपने व्यवहार को संचालित करूं, जिससे मेरे पाप कर्म का बंध न हो।' शिष्य को समाहित करते हुए गुरु कहते हैं कि - अब से तुम अपनी जीवन यात्रा को यतना (संयम) पूर्वक संचालित करो। तुम्हारे पाप कर्म का बंध नहीं होगा। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति में भी विवेक 1. आयारो, 1/6, अकरिस्सं चहं, कारवेसु चहं, करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि । 2. आचारांगभाध्यम्, 1/6 पृ. 26, क्रिया कर्मपुद्गलानास्रवति, तेन अस्या अपरनाम आश्रवो विद्यते। 3. सूयगडो, 2/2/2 4. 8. ठाणं, 2/2-37 5. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 1/60-100, 364-372 इत्यादि 6. तत्त्वार्थाधिगम, सूत्र 6/6 7. दशवैकालिक 4/7 कहं चरे? कहं चिठे? कहमासे? कहं सए? कहं भुजंतो भासंतो, पावं कम्मन बंधई।। 8. वही, 4/8 जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए। जयंभुंजंतो भासंतो, पांवं कम्मनबंधई॥
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