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________________ जैन आगम में दर्शन सिद्धसेनगणी और द्रोणाचार्य के मतानुसार सराग के भी कषाय व्युच्छिन्न अवस्था में ऐर्यापथिकी क्रिया हो सकती है।' 224 प्रस्तुत सूत्रों की रचना से भी कुछ प्रश्न उभरते हैं 1. अनायुक्त - प्रमत्त अवस्था में चलने वाले अनगार के साम्परायिकी क्रिया होती है। कोई अनगार आयुक्त- अप्रमत्त अवस्था में चलता है, उसके भी साम्परायिकी क्रिया होती है, तो फिर गौतम के प्रश्न और महावीर के उत्तर का तात्पर्य क्या है ? यथासूत्र - आगम-निर्दिष्ट विधि के अनुसार चलने वाले के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है। उत्सूत्र - आगम-निर्दिष्ट विधि के प्रतिकूल चलने वाले के साम्परायिकी क्रिया होती है। क्या सभी सराग अनगार उत्सूत्र ही चलते हैं ? ये प्रश्न सिद्धसेनगणी के मत पर विचार करने के लिए संप्रेरित करते हैं । आचार्य महाप्रज्ञ ने सिद्धसेन एवं द्रोणाचार्य के मत को विमर्श योग्य स्वीकार करके तथा अनायुक्त एवं यथासूत्र के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित करके भी स्पष्ट रूप से अपने अभिमत को प्रस्तुत नहीं किया है, किंतु प्रकारान्तर से उनका अभिमत सिद्धसेन की अवधारणा को सम्पुष्ट करता हुआ प्रतीत हो रहा है, जो कि समीचीन भी है। 2. - भगवती में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि भावितात्मा अनगार एवं आयुक्त संवृत्त अनगार के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है । भगवती के भावितात्मा एवं संवृत्त अनगार वीतराग ही हो यह आवश्यक नहीं है। यदि संवृत्त अनगार वीतराग ही होता तो उसका आयुक्त विशेषण क्यों दिया जाता ? क्योंकि वीतराग तो सदैव आयुक्त ही होता है । अत: प्रस्तुत प्रसंग में वर्णित संवृत्त अनगार वीतराग का वाचक प्रतीत नहीं हो रहा है। भगवती में ही बकुश निर्ग्रन्थ के पांच प्रकारों में दो प्रकार - संवृत्त बकुश एवं असंवृत्त बकुश है।' बकुश तो निश्चय ही वीतराग नहीं है । अत: ऐर्यापथिकी क्रिया के संदर्भ में आगत संवृत्त अनगार शब्द वीतराग भिन्न अनगार का वाचक प्रतीत हो रहा है। उसी प्रकार भावितात्मा शब्द का प्रयोग भी ऐर्यापथिकी के संदर्भ वीतराग के लिए हुआ हो, संभव कम लगता है । वीतराग के होने वाली ऐर्यापथिकी क्रिया से केवल सात वेदनीय कर्म का ही बंध होता है । यदि वीतराग इतर अकषायी सराग के ऐर्यापथिकी क्रिया मानी जाए तो उसके कितने और कौन-से कर्म का बंध होगा । यह प्रश्न विमर्शनीय होगा। क्योंकि वीतराग अवस्था से पूर्व सात-आठ कर्मों का बंध एवं छह कर्मों (दसवें गुणस्थान में) का बंध स्वीकार किया गया है। कर्मवेदन की सापेक्षता संसारी जीवों के प्रतिक्षण कर्म का बंध होता रहता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 25/280 बउसे णं भंते । कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा - पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - आभोगबउसे, अणाभोगबड्से, संवुडबउसे, असंवुडबउसे, अहासुहुमबउसे नामं पंचमे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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