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कर्ममीमांसा
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ही कर्मों की कर्ता एवं विकर्ता (तोड़ने वाली) है। यहां विकर्ता शब्द विशेष मननीय है। जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा कृत कर्मों को तोड़ सकता है। भगवान महावीर पुरुषार्थ के प्रवक्ता थे। उनकी स्वीकृति है कि जीव अपने ही पुरुषार्थ से कर्मों को बांधता है तो उनको तोड़ भी सकता है एवं उनमें परिवर्तन भी ला सकता है। कृत कर्मों का भोग अवश्यंभावी है।' यह कर्मवाद का सामान्य सिद्धान्त है। यदि इस सिद्धान्त को सर्वथा निरपेक्ष स्वीकार करें तो धार्मिक/ आध्यात्मिक क्रिया की कोई उपयोगिता ही नहीं रह जाएगी। धार्मिक पुरुषार्थ का प्रयोजन भी यही है कि अतीत कृत कर्म को वर्तमान पुरुषार्थ से समाप्त कर दे। कर्म को बदला जा सकता है अतः कर्म भोग का सिद्धान्त सापेक्ष है।
कृत कर्म को भोगना ही पड़ता है इसका सम्बन्ध प्रदेश कर्म के साथ है, अनुभाग कर्म के वेदन में भजना है उसका वेदन जीव करता भी है और पुरुषार्थ के द्वारा उसमें परिवर्तन भी ला सकता है। भगवती में कहा गया प्रदेशकर्म का भोग अवश्यमेव करना होता है। अनुभाग का कुछ वेदन करते भी हैं और नहीं भी करते हैं।
तपस्या के द्वारा कर्म की निर्जरा करो- इसका आधार अनुभाग-कर्म के वेदन का विकल्प ही है।' अर्थात् अनुभाग कर्म का अनुभव कुछ करते भी हैं और नहीं भी करते हैं। जो तपस्या आदि अनुष्ठान करते हैं वे उदीरणा, उद्वर्तना, अपवर्तना आदि के द्वारा अनुभाग कर्म को परिवर्तित या निष्क्रिय कर देते हैं। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रदेशकर्म का वेदन अनिवार्य है तथा अनुभाग कर्म के वेदन में अनिवार्यता नहीं है। उसका वेदन हो भी सकता है, नहीं भी होता है। वेदनाएवं निर्जरा
जैन दर्शन में कर्म पर विविध पहलुओं से विमर्श किया गया है। सामान्यतः यह कहा जाता है कि जितनी अधिक वेदना होगी उतनी ही निर्जरा होगी, यह अवधारणा भी सापेक्ष है। वेदना अधिक एवं निर्जरा कम तथा वेदना कम एवं निर्जरा अधिक हो सकती है। यह तथ्य भगवती में उल्लिखित है।
श्रमण-निर्ग्रन्थ के अल्पवेदना होने पर भी महानिर्जरा होती है। इसका हेतु है कर्म का शिथिलीकृत स्वरूप । छठी एवं सातवीं नारकी के नैरयिकों के महावेदना होती है पर महानिर्जरा 1. उत्तरज्झयणाणि 4/3 कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि। 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/190 तत्थ-णं जंणं पदेसकम्मं तं नियमा वेदेई। तत्थ णं जंणं अणभागकम्म
तं अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं णो वेदेइ। 3. (क) दसवेआलियं, प्रथम चूलिका, सूत्र 18 पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुब्विं दुच्चिण्णाणं
दुप्पडिक्वंताणं वेयइत्ता मोक्खो नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता (ख) आयारो 2/16 3 धुणे कम्मसरीरगं (ग) दसवेआलियं 6/67 खति अप्पाणममोहदंसिणो तवे रया संजम अज्जवे गुणे।
धुणंति पावाई पुरे कडाई, नवाइ पावाइं न ते करेंति।।
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