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________________ 226 जैन आगम में दर्शन नहीं होती,' इसका कारण है उनके कर्मगाढ होते हैं । महावेदना और महानिर्जरा का यह सामान्य नियम है। अल्पवेदना और महानिर्जरा यह इसका अपवादसूत्र है। निर्जरा का मूल हेतु हैप्रशस्त अध्यवसाय एवं शुभयोग । निर्जरा की न्यूनता या अधिकता अध्यवसाय पर ही निर्भर है। वेदनाको सहने में यदि समभाव है तो निर्जरा महान् होगी। यदि समभाव नहीं है तो महावेदना होने पर भी अल्पनिर्जरा ही होगी। वेदना एवं निर्जरा के उदाहरण भगवती में वेदना एंव निर्जरा के संदर्भ में चार उदाहरण प्राप्त हैं1. प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार महावेदना को समभाव से सहन करता है, इसलिए उसके महानिर्जरा होती है। 2. छठी-सातवीं पृथ्वी के नैरयिक महावेदना कोसमभाव से सहन नहीं करते, इसलिए उनके अल्प निर्जरा होती है। 3: शैलेशी अवस्था प्रतिपन्न अनगार के वेदना अल्प होती है किंतुसमभाव अधिकतम होता है, इसलिए अल्पवेदना की अवस्था में भी महानिर्जरा होती है। 4. अनुत्तर विमान के देवों के वेदना भी अल्प और निर्जरा भी अल्प होती है।' आचार्य महाप्रज्ञ ने इन उदाहरणों का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जिनमें निर्जरा करने का प्रयत्न होता है, उनके अविपाकी निर्जरा होती है। वे उदीरणा कर अविपक्व कर्मों को उदय में लाकर निर्जीर्ण कर देते हैं। प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार और शैलेशी प्रतिपन्न अनगारये दो इस कोटि के उदाहरण हैं। छठी-सातवीं पृथ्वी के नैरयिक और अनुत्तरविमान के देवये विपाकी निर्जरा के उदाहरण हैं। उनमें निर्जरा का प्रयत्न नहीं होता। अशुभ और शुभकर्म उदयावली में प्रविष्ट होकर अपना फल देकर निवृत्त हो जाते हैं।' वेदना एंव निर्जरा की प्रस्तुत विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो आगत कष्ट हैं उनको समभावपूर्वक सहन करने से महानिर्जरा होती है तथा अविपाकी कर्म को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर समभावपूर्वक सहन करना साधना का विशिष्ट प्रयोग है। इससे प्रचुर कर्म निर्जरण होता है। सिद्धान्त को उदाहरण के द्वारा सरल बनाकर समझाना भगवती की रचनाशैली की विशेषता है। प्रस्तुत प्रसंग में वस्त्र, अहरण आदि विभिन्न उदाहरण देकर महानिर्जरा, महावेदना आदि की अवधारणा को स्पष्ट किया है।' 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 6/4 2. भगवई (खण्ड-2) पृ. 233 3. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 6/16 4. भगवई (खण्ड-2), पृ. 225 5. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 6/4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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