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________________ कर्ममीमांसा 227 कर्मबन्ध एवं मोक्ष की कारणभूत क्रिया सूत्रकृतांग सूत्र में कर्मबन्ध और मोक्ष की कारणभूत तेरह क्रियाओं का उल्लेख हुआ है।' अर्थदंड, अनर्थदण्ड आदि प्रथम बारह क्रियाएं कर्मबंध की हेतु है तथा कर्मबंध से मुक्त होने की क्रिया का नाम ईर्यापथिक है। अर्थदण्ड आदि बारह क्रियाओं से पापकर्म का बंध होता है। यद्यपि ई-पथिकी क्रिया पुण्य कर्मबंध की कारण है फिर भी वह शुभयोगात्मक होने के कारण आचरणीय है। बारह क्रियाएं अशुभयोगात्मक है अत: सर्वथा अनाचरणीय है। उनसे संसार भ्रमण बढ़ता है। तेरहवीं ईर्यापथिकी क्रिया में प्रवृत्ति करने वाले के संसार-भ्रमण का उच्छेद हो जाता है। भगवती में आरम्भिकी आदि पांच क्रियाओं का उल्लेख हैं। वे क्रियाएं कर्मबंध का हेतु होने से संसार भ्रमण करवाने वाली हैं। स्थानांगमें बहत्तर क्रियाओं का निर्देश है। तत्त्वार्थसूत्र में पच्चीस क्रियाओं का प्रतिपादन है। कर्मबंध की दृष्टि से क्रिया के सभी प्रकारों का ऐापथिकी और साम्परायिकी इन दो क्रियाओं में समावेश हो जाता है। जीवन निर्वाह के लिए प्राणी प्रवृत्ति करता है। प्रवृत्ति के मुख्य प्रेरक तत्त्व अप्रत्याख्यान, आकांक्षा और प्रेयस् हैं। प्रवृत्ति के परिणाम ईर्यापथिक और साम्परायिक कर्मबंध है। प्रवृत्ति के मुख्य तीन प्रकार हैं- कायिक, वाचिक और मानसिक। उनके प्रभेद अनेक हैं। योग से अयोग दशा को प्राप्त करने पर ही जीव सर्वथा कर्ममुक्त हो सकता है। क्रियामुक्ति होने से ही कर्म मुक्ति संभव है। कर्म का पौद्गलिकत्व जैन दर्शन के अनुसार कर्म दो प्रकार के हैं-द्रव्य एवं भाव । भावकर्म जीव की रागद्वेषात्मक परिणति है। जीव की इस राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति से जिन कर्म पुद्गलों का आकर्षण होता है, वे पौद्गलिक होते हैं। भगवती में प्रश्न उपस्थित किया गया कि प्राणातिपात आदि अठारह पापों में कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं ? समाधान के प्रसंग में इन अठारह पापों में पांच वर्ण (कृष्ण, नील, रक्त, पीत, श्वेत), दो गंध (सुगंध, दुर्गंध), पांच रस (तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल एवं मधुर) एवं चार स्पर्श (शीत, उष्ण, स्निग्ध एवं रुक्ष) होने का उल्लेख हुआ है। पुद्गल के वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श ये ही चार गुण माने गए हैं।' कर्म-परमाणु सूक्ष्म हैं। अनन्त प्रदेशी कर्म स्कन्ध ही आत्मा से संयुक्त हो सकते हैं। ये स्कन्ध भी चतु:स्पर्शी ही 1. सूयगडो, 2/2/2 सूत्रकृतांगचूर्णि, पृष्ठ 336 इमेहिं बारसहि किरियट्टाणेहिं बज्झति, मुच्चति तेरसमेणं। 3. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई)1/80 4. ठाणं 2/2-37 5. तत्त्वार्थसूत्र 66 6. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 12/102-107 7. तत्त्वार्थसूत्र 5/23 स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त: पुद्गलाः। 8. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8/482 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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