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________________ कर्ममीमांसा 223 ओघनियुक्ति की डेढ़ गाथा उद्धृत की है।' ओघनियुक्ति की वृत्ति में द्रोणाचार्य ने लिखा है- जो मुनि ज्ञानी है, अप्रमत्त है, उसके काययोग से कोई प्राणी मर जाता है, उसके साम्परायिक कर्म का बंध नहीं होता है, ईर्याप्रत्ययिक कर्म का बंध होता है।' सूत्रकार ने क्रोध, मान, माया और लोभ के लिए 'व्युच्छिन्न' तथा 'अव्युच्छिन्न' शब्द का प्रयोग किया है। यहां क्षीण' शब्द का प्रयोग नहीं है। व्युच्छिन्न शब्द विमर्शनीय है। पतञ्जलि ने क्लेश की चार अवस्थाएं बतलाई हैं-प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार । क्लेश समय-समय पर विच्छिन्न होता रहता है। वह सदा लब्धवृत्ति अथवा उदित अवस्था में नहीं रहता।' अभयदेवसूरि ने भी 'वोच्छिन्न' का अर्थ 'अनुदित' किया है। इन व्युच्छिन्न और अव्युछिन्न पदों के आधार पर ओघनियुक्तिकार और सिद्धसेनगणी का मत विमर्श योग्य है। ऐपिथिकी क्रिया का सम्बन्ध केवल गमनमार्ग से नहीं है अपितु उसका सम्बन्ध जीवन-व्यवहार के लिए होने वाली क्रियाओं से हैं। ऐापथिकी क्रिया में होने वाले कर्मबन्ध की प्रक्रिया का निर्देश भगवती सूत्र में प्राप्त है। इस क्रिया के प्रथम समय में कर्म का बंध और स्पर्श होता है। कर्म-प्रायोग्य परमाणु-स्कन्धों का कर्म रूप में परणिमन होना ‘बद्ध-अवस्था' है। जीव प्रदेशों के साथ उनका स्पर्श होना ‘स्पृष्ट-अवस्था' है। द्वितीय समय में बद्ध कर्म का वेदन होता है, तृतीय समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। सूत्रकार ने वाक्यान्तर में द्वितीय समय की अवस्था को 'उदीरिया वेइया' इन दो शब्दों के द्वारा निर्दिष्ट किया है। इसका तात्पर्य है कि कर्म का उदय और वेदन-ये दोनों अवस्थाएं द्वितीय समय में होती है। जिस समय में बंध होता है, उस समय में उदय नहीं होता। इसलिए उदय दूसरे समय में होता है।' ऐर्यापथिकी क्रिया से बचने वाले कर्म की स्थिति दो समय की है। जयाचार्य ने भी दो समय की स्थिति का उल्लेख किया है।' तत्त्वार्थभाष्यकार ने इसकी स्थिति एक समय की मानी है। वृत्तिकार के अनुसार वेद्यमान कर्म-समय ही स्थिति-काल है।' 1. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी वृत्ति 6/5 अकषायो वीतराग: सरागश्च। तत्र वीतरागस्त्रिविध उपशान्तमोह एक: क्षीणमोहकेवलिनौ च कात्स्ये नोन्मूलितकर्मकदम्बकौ, सराग: पुन: संज्वलनकषायवानपि अविद्यमान उदयोऽकषय एव मन्दानुभावत्वमनुदराकन्या निर्देशवत्, अतश्चोपपन्नमिदं -उच्चालियम्मि पाए, इरियासमियस्स संकमट्ठाए। वावग्नेज्ज कुलिंगी, मरेज्ज जोगमासज्ज (ओघनियुक्ति गा. 747) न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहमो वि देसितो समए। (ओधनियुक्ति गा. 749) 2. ओघनियुक्ति पृ. 499 पातञ्जल योगदर्शन 2/8 विच्छिद्य विच्छिद्य तेन तेनात्मना पुन: समुदाचरन्तीति विच्छिन्ना कथम्? रागकाले क्रोधस्यादर्शनात्, न हि रागकाले क्रोधस्समुदाचरिति, रागश्च क्वचिद् दृश्यमानो न विषयान्तरे नास्ति, नैकस्यां स्त्रियां चैत्रो रक्त इत्यन्यासु स्त्रीषु विरक्त इति, किंतु तत्र रागो लब्धवृत्तिरन्यत्र भविष्यवृत्तिरिति। भगवती वृत्ति, 6/292 वोच्छिन्नेति अनुदिताः। 5. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 3/148 6. उत्तरज्झयणाणि 29/72 ताव य इरियावहियं कम्मं बंधइ, सुहफरिसं दुसमयठिइयं । 7. झीणी चर्चा, ढाल 17/26 घणा समय स्थिति संपराय, बे समय इरियावहि..... 8. तत्त्वार्थभाष्य 6/5 अकषायस्येर्यापथस्यैवैक समयस्थिते। 9. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका 6/5 वेद्यमानकर्मसमयो मध्यमः स एव स्थितिकाल: । आद्यो बंधसमयस्ततीय: परिशाटनसमय इति। 3. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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