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ऐर्यापथिकी क्रिया के प्रकार
है
भगवती में ही ईर्यापथिकी एवं साम्परायिकी क्रिया के विभिन्न स्वरूप प्राप्त इर्यापथिकी क्रिया को चार प्रकार से बताया गया है
केवल काययोग के कारण होने वाला कर्मबंध,
अकषायी के होने वाला कर्मबंध,
जैन आगम में दर्शन
1.
2.
3. यथासूत्र विचरण करने वाले के होने वाला कर्म बंध,
4.
दत्तचित्त होकर क्रिया करने वाले संवृत्त एवं भावितात्मा अनगार के होने वाला कर्मबंध ।
1
साम्परायिकी क्रिया के प्रकार
साम्परायिक क्रिया के दो प्रकार हैं- 1. कषाय से होने वाला कर्मबंध, 2. उत्सूत्र विचरण करने से होने वाला कर्मबंध |
भगवती के प्रथम शतक में ईर्यापथिकी का सम्बन्ध मात्र काययोग से माना है। उसी सूत्र के सातवें शतक में उसका सम्बन्ध अकषाय से/कषाय राहित्य से तथा यथासूत्र विहरण से माना है । अठारहवें शतक में यह भी उल्लेख है कि भावितात्मा अनगार के ईर्यापूर्वक चलते हुए यदि जीव वध होता है तो भी उसके साम्परायिक क्रिया नहीं होती, ईर्यापथिकी क्रिया होती है।' भगवती सूत्र में ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रिया की चर्चा अनेक कोणों से की गई है। एर्यापथिकी क्रिया में होने वाला कर्मबंध
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साम्परायिकी एवं ईयापथिकी क्रिया के संदर्भ में विशेष विमर्श प्रस्तुत करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि ' - जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न होते हैं, उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है जिसके ये व्युच्छिन्न नहीं होते हैं, उसके साम्परायिकी क्रिया होती है । ' इस सूत्र के आधार पर यह सिद्धान्त स्थापित हुआ है - अवीतराग के साम्परायिकी क्रिया होती है और वीतराग के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है । वीतराग के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है - यह निश्चित सिद्धान्त है । अवीतराग के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है या नहीं होती, यह विमर्शनीय है ।
सिद्धसेनगणि ने अकषाय के दो प्रकार किए हैं- वीतराग और सराग। वीतराग अकषाय के तीन प्रकार हैं- उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवली । कषाय का उदय न हो उस अवस्था में संज्वलन कषाय वाला भी अकषाय होता है। वह सराग अकषाय है। इसके समर्धन में उन्होंने
1. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई), 18 / 159 अणगारस्स णं भावियप्पणो पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोते वा वट्टपोते वा कुलिंगच्छाएं वा परियावज्जेज्जा. तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ ।
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2. भगवई (खण्ड- 2) पृ. 333, 69 70 ( प्रस्तुत ग्रन्थ के पाठक की सुविधा के लिए प्राचीन उद्धरण जो भगवई भाष्य में उद्धृत हैं वे दिए हैं ।)
3. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई), 7 / 126
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