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________________ कर्ममीमांसा 221 कारण होने वाला कर्मबंध ऐपिथिकी क्रिया कहलाता है तथा कषाय के कारण होने वाला कर्मबंध साम्परायिकी क्रिया है।' ऐापथिकी क्रिया का स्वरूप गमनमार्ग में होने वाली क्रिया ऐर्यापथिकी कहलाती है। इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ केवल (कषायशून्य) योग से होने वाली क्रिया किया गया है। भगवती के वृत्तिकार ने 1/444 के सूत्र की व्याख्या में इसे केवल काययोग जन्य माना है तथा 3/148 की व्याख्या में इसे 'योग' निमित्तक कहा है। अर्थात् प्रथम वक्तव्य में केवल काययोग के कारण होने वाले कर्मबन्ध को ऐापथिकी क्रिया कहा है जबकि द्वितीय वक्तव्य में योगमात्र (मन, वचन, काया) से होने वाले बन्ध को ऐर्यापथिकी क्रिया कहा है। उपर्युक्त वक्तव्य पर विमर्श करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ऐपिथिक बन्ध काययोग से ही होता है क्योंकि वचनयोग एवं मनयोग पर तो साधक का नियंत्रण होता है। काययोग पर उतना अनुशासन संभव नहीं है। अत: जहां योग का उल्लेख किया है उसे काययोग ही समझना चाहिए। वीतराग के तीनों योग है किंतु वहां प्रमुखता काययोग की ही परिलक्षित हो रही है। अवीतराग प्राणी के साम्परायिकी क्रिया होती है और वीतराग के ऐापथिकी क्रिया होती है। सकषायी जीव के साम्परायिक बंध होता है। अकषायी के होने वाले कर्मबंध का नाम ईर्यापथिक है। जो संवृत्त अनगार आयुक्त दशा में (दत्तचित्त होकर) चलता है, खड़ा होता है, बैठता है, लेटता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद-प्रोञ्छन लेता अथवा रखता है। उस संवृत्त अनगार के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं होती है तथा भावितात्मा अनगार के भी ऐापथिकी क्रिया होती है। इसी प्रकार यथासूत्र विचरण करने वाले के ईर्यापथिकी क्रिया होती है तथा उत्सूत्र विचरण करने वाले के साम्परायिकी क्रिया होती है।' भगवती वृत्ति, 1/444 'इरियावहिय' ति ईर्या-गमनं तद्विषयः पन्था-मार्ग ईर्यापथस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी, केवलकायद्योगप्रत्यय कर्मबंध इत्यर्थः। संपराइयं च त्ति संपरैति-परिभ्रमति प्राणी भवे एभिरिति संपराया कषायास्तत् प्रत्यया या सा साम्परायिकी, कषायहेतुक: कर्मबन्ध इत्यर्थः । 2. वही, 3/148 ईरियावहिय ति ईर्यापथो-गमनमार्गस्तत्र भवा ऐयापथिकी केवलयोगप्रत्ययेति भावः । 3. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई)1/126 जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया क नइ, जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ। 4. (क) वही, 7/125 संवुडस्स णं अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ। (ख) वही, 18/159 5. (क) वही, 7/126 अहासुत्तं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ। (ख) वही. 18/160 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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