SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 128 परिणाम प्रत्ययिक बंध यह सादि विस्रसा बंध का तीसरा प्रकार है। परिणाम का अर्थ है - रूपान्तरगमन । ' परमाणु स्कन्धों का बादल आदि अनेक रूपों में परिणमन होता है, वह परिणाम- प्रत्ययिक बंध है । जैन आगम में दर्शन ये तीनों प्रकार के बंध पौद्गलिक हैं। इनमें बंधप्रत्ययिक मुख्य बंध परिलक्षित होता है, उसमें परमाणु का पारस्परिक सम्बन्ध नियम के आधार पर नियत है अन्यत्र ऐसा नहीं है । बंध को आगमोत्तर साहित्य में पौद्गलिक माना गया है। जबकि भगवती में प्रास अनादि विस्रसा बंध धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय में प्राप्त है तथा सादि विससा बंध पुद्गल का माना गया है । " प्रयोगबन्ध जीव के व्यापार से सम्बन्ध रखता है । ' तत्त्वार्थ सूत्र के 5 / 24 सूत्र के भाष्य में बंध को प्रयोग, विस्रसा एवं मिश्र के भेद से तीन प्रकार कहा है। जिसको भगवती में पुद्गल का परिणाम कहा गया है ' तथा बंध को प्रयोग एवं विस्रसा के भेद से दो प्रकार का बतलाया गया है । ' तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति में विस्रसा बंध को सादि एवं अनादि उभय प्रकार का बतलाया है तथा अनादिविस्रसा बंध के उदाहरण के रूप में धर्म, अधर्म एवं आकाश का उल्लेख किया है। यह स्पष्ट ही है कि ये पौद्गलिक नहीं हैं । पुद्गल के स्वभाव रूप में जिस बंध का तत्त्वार्थ आदि ग्रन्थों में उल्लेख हुआ है उसको सादि विस्रसा बंध ही समझना चाहिए। बंध पांचों अस्तिकाय में ही किसी-न-किसी रूप में उपलब्ध है अतः उसको मात्र पौद्गलिक नहीं कहा जा सकता । परमाणु की गति जैन दर्शन के अनुसार जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य गतिशील हैं। इनमें तीव्रता से गति करने की शक्ति है । जिस प्रकार मुक्त जीव एक समय में लोकान्त तक पहुंच जाता है, उसी प्रकार परमाणु भी एक समय में लोक के एक छोर से दूसरे छोर पर जा सकता है। ' धर्मास्तिकाय परमाणु को गति के लिए प्रेरित नहीं करता किंतु जब वह गति करता है तो उसका सहयोगी बनता है । परमाणु पुद्गल की गति का विमर्श आधुनिक विज्ञान के गति सिद्धान्त के संदर्भ में करणीय है । 1 भगवतीवृत्ति,, 395, परिणामो रूपान्तरगमनं । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5 / 24 2. 3. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई) 8/347, 350-351 4. तत्त्वार्थाधिगमभाष्यवृत्ति, 5 / 24 पृ. 360 5. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5 / 24, बन्धस्त्रिविध:- प्रयोगबंधो, विस्रसाबंधो मिश्रबंध: । अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 8 / 1 6. 7. वही, 8 / 345 8. तत्त्वार्थाधिगमभाष्यवृत्ति, 5 / 24 पृ. 360 9. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 16/116, परमाणुपोग्गलेणं लोगस्स पुरत्थिमिल्लं तं चेव जाव उवरिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy