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तत्त्वमीमांसा
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मन एवं भाषा पौद्गलिक
मन एवं भाषा जीव के होते हैं, ' किंतु ये स्वयं अचेतन हैं, पौद्गलिक हैं, रूपी हैं। भाषा श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है अत: मूर्त है। अमूर्त पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है।' शब्द और भाषा एक नहीं है। शब्द तो अजीव से भी उत्पन्न हो सकते हैं किंतु वह भाषा नहीं है क्योंकि भाषापर्याप्ति के द्वारा जन्य शब्द को ही भाषा कहा जाता है। भाषा पर्याप्ति जीव के ही होती है। जब जीव बोलता है वही भाषा है उससे पूर्व एवं उत्तरकाल में उसको भाषा नहीं कहा जाता।' भाषा वर्गणा के पुद्गल समूचे लोक में व्याप्त रहते हैं। बोलने वाला उन पुद्गल-वर्गणाओं का पहले ग्रहण करता है, फिर भाषा रूप में परिणत करता है। उसके पश्चात् उनका विसर्जन करता है। यह विसर्जन-काल ही वर्तमान काल है और विसर्जन काल में ही भाषा का निर्देश किया जाता है। उसी से अर्थका ज्ञान होता है। इसी प्रकार मन भी पुद्गल जनित है।मननकाल में ही मन, मन कहलाता है, इससे पूर्व एवं बाद में उसको मन नहीं कहा जा सकता।' मन रूपी है, पुद्गल है, इसका अर्थ हुआ हमारे विचार भौतिक हैं। जीव द्वारा गृहीत भाषावर्गणा के पुद्गल भाषा रूप में परिणत होते हैं एवं मनोवर्गणा के पुद्गल मन (द्रव्यमान) के रूप में परिणत होते हैं। जैन दर्शन में द्रव्य एवं भाव के भेद से मन दो प्रकार का माना गया है। द्रव्य मन ही पौद्गलिक होता है, भाव मन चेतनरूप है, आत्मा का ही अंश है।
___ विचार बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। देकार्त ने विचार के आधार पर अस्तित्व को सिद्ध किया है।' विचार को चैतन्य की अभिव्यक्ति का साधन माना गया। मानव विचारशील है किंतु विचार स्वयं जड़ हैं, भौतिक हैं, यह जैन दर्शन की मान्यता है। शब्द श्रवण की प्रक्रिया
शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है। श्रोत्र-इन्द्रिय में शब्द के परमाणुस्कन्धों का स्पर्श होता
1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 13/124,1 2 6, ......जीवाणं भासा, नो अजीवाणं भासा।......जीवाणं मणे
नो अजीवाणं मणे। 2. वही, 13/124,126, रूविं भासा नो अरूविं भासा । रूविं मणे, नो अरूविं मणे। 3. भगवतीवृत्ति, पत्र 621,नजीवस्वरूपा श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्वेन मूततयात्मनो विलक्षणत्वात् । 4. उत्तरज्झयणाणि, 14/19, नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा । 5. भगवतीवृत्ति पत्र 622, ......जीवानां भाषा......., यद्यपि चाजीवेभ्यः शब्द उत्पद्यते तथाऽपि नासौ
भाषा, भाषापर्याप्तिजन्यस्यैव शब्दस्य भाषात्वेनाभिमत्वादिति ।। 6. (क) अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 13/124, भासिज्जमाणी भासा।
(ख) भगवतीवृत्ति पत्र 622,भाष्यमाणा-निसर्गावस्थायां वर्तमाना भाषा घटावस्थायां घटस्वरूपमिव । 7. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 13/126 8. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2/41 9. Masih, y, A Critical History of Western Philosophy P.200, Cogito Ergo Sum (I think therefore I am)
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