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है। श्रवण क्षेत्र में आत्म-प्रदेशों के साथ स्पृष्ट शब्द को सुना जा सकता है।' आत्म-प्रदेशों के साथ एक क्षेत्र में अवस्थित तथा उनसे अव्यवहित रूप में अवस्थित शब्द ही श्रवण के विषय बनते हैं । ' व्यवहित एवं अस्पृष्ट शब्दों को नहीं सुना जा सकता ।
भगवती में उल्लेख है कि अणु और बादर दोनों प्रकार के शब्दों को सुना जा सकता है । प्रस्तुत प्रसंग में अणु और बादर सापेक्ष शब्द हैं । भाषा वर्गणा के पुद्गल चतु:स्पर्शी होते हैं, उन्हें नहीं सुना जा सकता। वक्ता के मुंह से निकलने वाले शब्द का विस्फोट होता है । उसमें अन्य अनन्तप्रदेशी स्कन्ध मिलकर शब्द को अष्टस्पर्शी बना देते हैं। वे अष्टस्पर्शी शब्द श्रोत्रेन्द्रिय के विषय बनते हैं। मलयगिरि ने सापेक्ष दृष्टि को स्पष्ट करते हुए अणु का अर्थ अल्पप्रदेशोपचय वाला और बादर का अर्थ प्रचुरप्रदेशोपचय वाला किया है। ' ऊर्ध्ववर्ती, अधोवर्ती और तिर्यग्वर्ती तथा आदि, मध्य और पर्यवसान तीनों समयों में शब्द को सुना जा सकता है।' भाषा द्रव्य का ग्रहणोचित्त-काल उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त है। उसके प्रथम समय, मध्य समय और पर्यवसान समय में शब्द श्रवण का विषय बन सकता है।' शब्द की तरंगें होती हैं। एक तरंग आरम्भ होती है और कुछ दूरी पर जाकर पूरी हो जाती है। फिर उसी प्रकार दूसरी तरंग का आरम्भ और अन्त होता है। शब्द की तरंगों के आदि मध्य और पर्यवसान तीनों को पकड़ा जा सकता है। श्रवण क्षेत्र में क्रम से आने वाले शब्द को सुना जा सकता है, अक्रम अथवा व्युत्क्रम से आने वाले शब्द को नहीं सुना जा सकता। छहों दिशाओं से आने वाले शब्द को सुना जा सकता है।' इसका हेतु यह है कि लोक में त्रस जीवों का एक नियत क्षेत्र है, उसे त्रसनाडी कहा जाता है । भाषक त्रस - प्राणी होता है, उसका अस्तित्व नियमत: त्रसनाडी में मिलता है। त्रसनाडी में छहों दिशाओं से पुद्गल का ग्रहण किया जा सकता है। "
जैन आगम में दर्शन
श्रोत्र- इन्द्रिय पटुतर होती है इसलिए वह स्पृष्ट अथवा प्राप्त मात्र विषय को ग्रहण करती है । जैसे धूल शरीर का स्पर्श करती है वैसे ही शब्द कान को छूता है और उसका बोध हो जाता है । शब्द के परमाणु स्कन्ध सूक्ष्म, प्रचुर द्रव्य वाले तथा भावुक अर्थात् उत्तरोत्तर शब्द
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अंग सुत्ताणि 2 (भगवई) 5 / 164
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वही, 5 / 64
3. वही, 5/64
4. प्रज्ञापना वृत्ति पत्र 263, अणून्यपि -- स्तोकप्रदेशान्यपि गृह्णाति बादराण्यपि प्रभूत- प्रदेशोपचितान्यपि, इहाणुत्वबादरत्वे तेषामेव भाषायोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकबाहुल्यापेक्षया व्याख्याते ।
5. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 5/64
6. प्रज्ञापनावृत्ति पत्र 263 - यानि भाषाद्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त्तं यावद् ग्रहणोचितानि तानि ग्रहणोचितकालस्य उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त - प्रमाणस्यादावपि प्रथमसमये, मध्येऽपि - द्वितीयादिष्वपि समयेषु पर्यवसानेऽपि + पर्यवसानसमयेऽपि गृह्णाति ।
अंग सुत्ताणि 2 ( भगवई) 5/64
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8. प्रज्ञापना वृत्ति पत्र 264, भाषको हि नियमात् वसनाइयां अन्यत्र सकायासम्भवात् वसनाड्यांच व्यवस्थितस्य नियमात् षड् दिगागत- पुद्गलसम्भवात् ।
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