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________________ तत्त्वमीमांसा 131 के परमाणु स्कन्धों को वासित करने वाले होते हैं, इसलिए उनका बोध स्पर्श मात्र से हो जाता है।' वक्ता बोलता है उसकी भाषा के पुद्गल स्कन्ध छहों दिशाओं में विद्यमान आकाश प्रदेश की श्रेणियों से गुजरते हुए प्रथम समय में ही लोकान्त तक पहुंच जाते हैं। भाषा की समश्रेणी में स्थित श्रोता मिश्र शब्द को सुनता है। वक्ता द्वारा उच्छृष्ट भाषा वर्गणा के पुद्गलों के साथ दूसरे भाषा वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध मिल जाते हैं, इसलिए श्रोता मूल शब्द को नहीं सुनता, मिश्र शब्द सुनता है। विश्रेणी में स्थित श्रोता वक्ता द्वारा उच्छृष्ट भाषा के पुद्गल स्कन्धों द्वारा वासित अथवा प्रकम्पित शब्दों को सुनता है। इसमें वक्ता द्वारा उच्छृष्ट मूल शब्द का मिश्रण नहीं रहता। औदारिक, वैक्रिय एवं आहारक शरीरी जीव भाषा को ग्रहण करते हैं एवं छोड़ते हैं।' वक्ता द्वारा निसृष्ट भाषा उत्कृष्टत: सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो सकती है।' चार समय में ही सम्पूर्ण लोक भाषा के परमाणुओं से परिपूरित हो जाता है। भाषा के संदर्भ में आगम साहित्य में विपुल विमर्श हुआ है। तद्विषयक स्वतंत्र शोध की जा सकती है। जीव और पुद्गल की अनुश्रेणी गति श्रेणी का सामान्य अर्थ पंक्ति होता है किंतु आगम साहित्य में प्रयुक्त श्रेणी शब्द से आकाशप्रदेश की पंक्ति का ग्रहण कर्तव्य है। आकाशप्रदेश की वह पंक्ति जिसके माध्यम से जीव और पुद्गल गति करते हैं, उसे श्रेणी कहते हैं। जीव और पुद्गल श्रेणी के अनुसार ही गति करते हैं, विश्रेणी से गति नहीं करते। पुद्गल के सम्बन्ध में यह ध्यातव्य है कि परप्रयोगनिरपेक्ष पुद्गल की स्वाभाविक गति तो अनुश्रेणी में ही होती है किंतु पर प्रयोग की अपेक्षा से वह अन्यथा भी होती है अर्थात् विश्रेणी में भी गति हो सकती है।' श्रेणी आकाश द्रव्य की होती है अत: उन्हें 1. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3 3 8 , बहु-सुहुम भावुगाइं जं पडुयरं च सोत्तविण्णाणं । 2. आवश्यक हारिभद्रीयाटीका, पृ. 12, .....तानि प्रथमसमय एव षट्सु दिक्षु लोकान्तमनुधावन्ति। 3. नंदी, 54/5, भासासमसेढीओ सदं जं सुणइ मीसयं सुणइ। वीसेढी पुण सई सुणेइ नियमा पराघाए ।। आवश्यकनियुक्ति, गा. 9, ओरालियवेउन्वियआहारो गिण्हई मुयइ भासं। आवश्यक हारिभद्रीया, वृत्ति पत्र 12, कश्चित्तु महाप्रयत्न, स खलु आदाननिसर्गप्रयत्नाभ्यां भित्वैव विसृजति, तानि च सूक्ष्मत्वाद् बहुत्वाच्च अनन्तगुणवृद्धया वर्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति । 6. आवश्यकनियुक्ति, गा. 11, चउहि समएहि लोगो, भासाइ निरन्तरं तु होइ फुडो। 7. भगवती वृत्ति पात्र 865, श्रेणी शब्देन च यद्यपि पंक्तिमात्रमुच्यते तथाऽपीहाकाशप्रदेशपंक्तय: श्रेणयो ग्राह्याः । 8. (क) अंगसुत्ताणि-2, (भगवई) 25/92-94 (ख) तत्त्वार्थासूत्र, 2/27 टी. अनुश्रेणिर्गति: श्रेणि:-आकाशप्रदेशपंक्ति......श्रेणिमनु अनुश्रेणि श्रेण्यामनुसारिणी गतिरिति यावत् । तत्त्वार्थाधिगमवृत्ति, सूत्र 2/27 पृ. 180, पुद्गलानामपि परप्रयोगनिरपेक्षाणां स्वाभाविकी गतिरनुश्रेणीभवति, यथाऽणो: प्राच्यात लोकान्तात् प्रतीच्यं लोकपर्यन्तमेकेन समयेन प्राप्तिरिति प्रवचनोपदेश परप्रयोगापेक्षया त्वन्यथाऽपि गतिरस्तीति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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