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जैन आगम में दर्शन
अनन्त माना गया है, क्योंकि आकाश के प्रदेश अनन्त होते हैं। लोकाकाश की श्रेणियां अनन्त नहीं है, वे असंख्य है क्योंकि लोकाकाश के प्रदेश असंख्य हैं। इन श्रेणियों के आकार की अपेक्षा से सात भेद हो जाते हैं। सात श्रेणियों के नाम निम्न निर्दिष्ट हैं
नाम
1. ऋजुआयता 2. एकतोवक्रा 3. द्वितोवक्रा 4. एकत:खहा 5. द्वित:खहा 6. चक्रवाला 7. अर्द्धचक्रवाला
ऋजु:आयता-जब जीव और पुद्गल ऊंचे लोक से नीचे लोक में और नीचे लोक से ऊंचे लोक में जाते हुए सम-रेखा में गति करते हैं, कोई घुमाव नहीं लेते, उस मार्ग को ऋजुआयता श्रेणी कहा जाता है। इस गति में केवल एक समय लगता है।
एकतोवक्रा-आकाश प्रदेश की पंक्तियां-श्रेणियां-ऋजु ही होती हैं। उन्हें जीव या पुद्गल की घुमावदार गति की अपेक्षा से वक्रा कहा गया है। जब जीव और पुद्गल ऋजु गति करते-करते दूसरी श्रेणी में प्रवेश करते हैं तब उन्हें एक घुमाव लेना होता है इसलिए उस मार्ग को 'एकतोवक्रा' श्रेणी कहा जाता है।
द्वितोवक्रा-जिस श्रेणी में दो घुमाव लेने पड़ते हैं उसे 'द्वितोवक्रा' कहा जाता है।
एकत:खहा-जब स्थावर जीव त्रसनाड़ी के बायें पार्श्व से उसमें प्रवेश कर उसके बायें या दाएं किसी पार्श्व में दो या तीन घुमाव लेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है। उसके वसनाड़ी के बाहर का आकाश एक ओर से स्पृष्ट होता है इसलिए इसे 'एकत:खहा' कहा जाता है।
द्वित:खहा-जब स्थावर जीव त्रसनाड़ी के किसी एक पार्श्वसे उसमें प्रवेश कर उसके बाह्यवर्ती दूसरे पार्श्व में दो या तीन घुमावलेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है, उसके त्रसनाड़ी के बाहर का दोनों ओर का आकाश स्पृष्ट होता है इसलिए उसे द्वित:खहा कहा जाता है।
चक्रवाला- इसमें चक्राकार गति होती है। इस आकार में जीव की गति नहीं होती, केवल पुद्गल की ही गति होती है।
अर्द्धचक्रवाला-इस गति में अर्धचक्राकार गति होती है।' 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 25/73 2. वही, 25/75 3. (क) वही, 25/91,34/3
(ख) ठाणं, 7/112 4. ठाणं (टिप्पण) पृ.771-772
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