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तत्त्वमीमांसा
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परिभोग्य-परिभोक्ता
संसार में चेतन और अचेतन-ये दो प्रकार के पदार्थ हैं। इनका परस्पर में कोई आदानप्रदान होता है या नहीं? यदि होता है तो कौन-किसका परिभोग करता है ? उस परिभोग के नियम क्या हैं ? इन विषयों में भगवती में विशद विवेचन हुआ है। अजीव द्रव्य अर्थात् पुद्गल जीव के परिभोग में आते हैं। जीव परिभोक्ता है, पुद्गल परिभोग्य है। जो सचेतन होता है वह ग्राहक होता है और जो अचेतन होता है वह ग्राह्य होता है। अत: जीव ग्राहक एवं पुद्गल ग्राह्य है। जीव पुद्गल को ग्रहण करता है और उससे पांच शरीर, पांच इन्द्रियां, तीन योग, श्वासोच्छवास आदि का निर्माण करता है, इसलिए जीव को परिभोक्ता एवं पुद्गल को परिभोग्य कहा है।'
संसारी जीव सशरीर ही होता है। शरीर, इन्द्रिय, योग आदि के लिए जब वह पुद्गलों का ग्रहण करता है तब उसके अलग-अलग नियम होते हैं। औदारिक, वैक्रिय एवं आहारक शरीर के निर्माण के लिए स्थित एवं अस्थित दोनों ही प्रकार के पुद्गलों का ग्रहण करता है।' स्थित का अर्थ है--जीवप्रदेश जिस प्रदेश जिस क्षेत्र में अवगाढ़ है उसी क्षेत्र के भीतर में रहने वाले पुद्गल । उस क्षेत्र से बाहर रहने वालों को अस्थित कहा गया है। तैजस् एवं कार्मण शरीर के निर्माण में यह नियम नहीं है। तैजस् एवं कार्मण शरीर के निर्माण में स्थित पुद्गलों का ही जीव ग्रहण करता है। मनयोग, वचनयोग के पुद्गल ग्रहण का नियम तैजस्, कार्मण जैसा है। काययोग के लिए पुद्गल ग्रहण का नियम औदारिक शरीर जैसा है।' जीव के उपयोग में अनन्तप्रदेशी पुद्गल स्कन्ध ही आ सकते हैं तथा क्षेत्र की दृष्टि में वे अनन्तप्रदेशी पुद्गल असंख्य आकाशप्रदेशों पर ही स्थित होनेजरूरी हैं। अर्थात् यदि अनन्तप्रदेशी पुद्गल स्कन्ध एक प्रदेशावगाही यावत् संख्येय प्रदेशावगाही हो तो जीव उसका ग्रहण नहीं कर सकता। भगवती में वर्णित इस संदर्भ की आगे की सम्पूर्ति के लिए प्रज्ञापना 2 8/1 का उल्लेख किया है। इससे परिलक्षित होता है कि भगवती का यह पाठ प्रज्ञापना के बाद का है अथवा आगमों के संकलन के समय में पहले प्रज्ञापना का संकलन कर लिया था। तत्पश्चात् भगवती का
1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 25/17,जीवदव्वाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, नो अजीवदव्वाणं
जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति । भगवतीवृत्तिपत्र856,इह जीवद्रव्याणिपरिभोजकानिसचेतनत्वेनग्राहकत्वात् इतराणितुपरिभोग्यान्यचेतनतया
ग्राह्यत्वादिति। 3. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 25/18 4. वही, 25/24 5. भगवतीवृत्ति पत्र 857, स्थितानि-किं जीवप्रदेशावगाढक्षेत्रस्याभ्यन्तरवर्तीनि अस्थितानिच-तदनन्तरवर्तीनि। 6. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 25/27, ........ठियाइं गेण्हइ, नो अट्ठियाइं गेण्हइ। 7. वही, 25/30 8. वही, 25/25
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