SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 134 जैन आगम में दर्शन संकलन हुआ है अत: यह वक्तव्य दिया गया है। कुछ भी हो भगवती की प्रस्तुत विचारणा जीव विज्ञान (biology) की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। शरीर निर्माण में जीव कैसे पुद्गलों का ग्रहण करता है, उनकी स्थिति किंरूप होती है, इत्यादि बातों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त है। इसका आधुनिक शरीर विज्ञान की अवधारणा के साथ तुलनात्मक अध्ययन करना महत्त्वपूर्ण हो सकता है। तमस्काय एवं कृष्णराजी जैन दर्शन में तमस्काय एवं कृष्णराजी का वर्णन हुआ है। इन दोनों का वर्ण काला, कृष्ण अवभासवाला गम्भीर, रोमांच उत्पन्न करने वाला, भयंकर, उत्त्रासक और परम कृष्णप्रज्ञप्त है। कोई एक देव भी उसे देखकर प्रथम दर्शन में क्षुब्ध हो जाता है ; यदि वह उसमें प्रविष्ट हो जाता है तो उसके पश्चात् अति शीघ्रता और अतित्वरा के साथ झटपट उसके बाहर चला जाता है।' इसका तात्पर्य हुआ कि ये दोनों ऐसे पुद्गल स्कन्धों से निर्मित हैं जिनमें से प्रकाश की एक भी किरण बाहर नहीं जा सकती। भगवती में तमस्काय को जल एवं कृष्णराजी को पृथ्वीकायिक माना गया है।' तमस्काय का प्रारम्भ एवं अन्त बिन्दु जम्बूद्वीप से बाहर तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर अरुणवर द्वीप की बहिर्वर्ती वेदिका के छोर से आगे अरुणोदय समुद्र है, उसमें बयालीस हजार योजन अवगाहन करने पर जल के ऊपर के सिरे से एक प्रदेश वाली श्रेणी निकली है। यहां सेतमस्काय उठता है। वह सतरह सौ इक्कीस योजन ऊपर जाता है। उसके पश्चात् तिरछा फैलता हुआ सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र इन चार स्वर्गलोकों को घेरकर ऊपर ब्रह्मलोक कल्प के रिष्ट विमान के प्रस्तर तक पहुंच जाता है। यहां तमस्काय समास होता है।' तमस्काय की संस्थान, विस्तार आदि अनेक बिन्दुओं के आधार पर भगवती में विस्तृत व्याख्या है। कृष्णराजी की संख्या एवं स्थिति कृष्णराजियां आठ मानी गई हैं।' सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गलोक से ऊपर 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 6 / 8 5,102 2. (क) वही, 6/70, नो पुढवि तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति, आऊ तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति । (ख) वही, 6/104, कण्हरातीओ........पढवि परिणामाओ. नो आउपरिणामा ओ। 3. वही, 6/72 4. वही, 6/72-88 5. (क) ठाणं, 8 / 4 3 - 45 (ख) अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 6/89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy