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________________ आत्ममीमांसा 149 जीवस्थान एवं गुणस्थान ' से युक्त नहीं माना है। समयसार ने उपर्युक्त सभी अवस्थाओं को पुद्गल द्रव्य का परिणाम माना है। ये जीव की पुद्गलकृत अवस्थाएं हैं। शुद्ध जीव में इन अवस्थाओं की सत्ता नहीं हो सकती। शुद्ध जीव मात्र चेतन स्वरूप है। उसमें किसी भी प्रकार का विभेद नहीं हो सकता। समयसार की टीका आत्मख्याति के कर्ता आचार्य अमृतचन्द्र ने इन अवस्थाओं के विवेचन में प्रत्येक के साथ पुद्गलद्रव्यपरिणाम का उल्लेख किया है। ये सारी अवस्थाएं पुद्गल द्रव्य के परिणामस्वरूप वाली होने के कारण जीव की अवस्थाएं नहीं हैं। समयसार में आचारांग के नेतिवाद का विस्तार आचारांग एवं समयसार दोनों में ही निषेधपरक भाषा में आत्मा तत्त्व अभिव्यंजित हुआ है। आचारांग में प्राप्त 'नेतिवाद' का अनुगुंजन प्राय: शब्दश: समयसार में हुआ है। आचारांग वर्ण, गंध आदि का भेदपूर्वक उल्लेख करके आत्मा में उनका निषेध करता है जबकि समयसार वर्ण आदि के कृष्ण, नील आदि भेद किए बिना ही समुच्चय में ही उनका जीव तत्त्व में निषेध कर देता है। समयसार ने आचारांग में प्राप्त 'नेतिवाद' के अतिरिक्त भी निषेध का उल्लेख किया है, जिसकी हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं | समयसार में प्राप्त विस्तृत नेतिवाद के अवलोकन से ज्ञात होता है कि समयसार आचारांग में प्राप्त संक्षिप्त वर्णन को विस्तार प्रदान कर रहा है तथा यह भी संभव है कि समयसार तक आते-आते विभिन्न जैन दार्शनिक मान्यताओं का विकास एवं विस्तार हो चुका था, समयसार उनका भी जीव में निषेध कर यह स्पष्ट कर देता है कि पुद्गलकृत जीव की जितनी भी अवस्थाएं हैं वह जीव का शुद्ध स्वरूप नहीं है। वह व्यवहार हो सकता है परमार्थ नहीं। आत्मा : बंध एवं मोक्ष प्रस्तुत प्रसंग में एक बात ध्यातव्य है कि समयसार ने जीव के बंधस्थान नहीं माने हैं। इससे यह भी स्पष्ट है कि जब जीव के बंधन ही नहीं है तो मोक्ष क्या होगा ? किंतु 1. समयसार में 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग हुआ है। गुणस्थानकी अवधारणा को विद्वान् परवर्ती मानते हैं। श्वेताम्बर आगम साहित्य में गुणस्थान शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं है तथा तत्त्वार्थसूत्र में भी 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग प्रास नहीं है। किंतु समयसार में 'गुणस्थान' शब्द उपलब्ध है । विचारणीय है कि दिगम्बर परम्परा उमास्वामी को कुन्दकुन्द का परवर्ती मानती है। ऐसी स्थिति में तत्त्वार्थसूत्र में 'गुणस्थान' शब्द का न मिलना चिन्त्य है। इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा कुन्कुन्द कोउमास्वातिकापरवर्ती मानती है।गुणस्थानशब्द की उपलब्धि-अनुपलब्धि के आधार पर यह प्रश्न विमर्शनीय है। समयसार, 1/51-55 3. वही, 1/55, जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा। 4. आत्मख्याति, गाया 50-55 की टीका, य: कृष्णो हरित: पीतो रक्तः श्वेतो वा वर्ण: स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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