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________________ 148 जैन आगम में दर्शन आत्म-विश्लेषण : व्यवहार एवं निश्चय नय जैन दर्शन में व्यवहारनय एवं निश्चयनय दोनों मान्य हैं । दोनों में से किसी का भी अपलाप नहीं किया जा सकता। क्योंकि व्यवहार के बिना तीर्थ की सुरक्षा नहीं हो सकती तथा निश्चय के बिना तत्त्व स्वरूप की सुरक्षा नहीं हो सकती।' जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं।। इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि तत्त्व-व्यवस्था में मुख्यता निश्चयनय की है। आचार्य कुन्दकुन्द ने तो व्यवहारनय को अभूतार्थ (अयथार्थ) कह दिया है। उनके अनुसार निश्चयनय (शुद्ध नय) ही भूतार्थ है। उस नय का आश्रय लेने वाला ही निश्चय में सम्यग्दृष्टि ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।' श्रुतज्ञान के द्वारा जो केवल शुद्ध आत्मा को जानता है वही परमार्थत: श्रुत केवली है।' श्रुतज्ञान सब कुछ जानता है, यह व्यवहारनय की वक्तव्यता है।' आत्मा की पुद्गलजनित जितनी भी अवस्थाएं हैं वे सब व्यवहारनय का विषय है। वस्तुत: वे आत्मा का वास्तविक स्वरूप है ही नहीं, इसी अवधारणा के आधार पर समयसार ने जीव को राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय (आश्रव), कर्म, नोकर्म, वर्ग,' वर्गणा,' स्पर्धक,' अध्यात्मस्थान,' अनुभागस्थान,'' योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, 4. 1. समयसार (आत्म-ख्याति) 1/12 की टीका, पृ. 26 2. समयसार (पूर्वरंग) 11 3. वही, (पूर्वरंग) 9, जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तंसुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ।। समयसार, (आत्मख्याति) 10 टीका, पृ. 22, य: श्रुतज्ञानं सर्वजानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः। 5. वही,गा. 50 से 55 की टीका, पृ. 101-106, मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणा: प्रत्ययाः। 6. वही, यत्षट्पर्याप्तित्रिशरीरयोग्यवस्तुरूपं नोकर्म। 7. वही, शक्तिसमूहलक्षणो वर्ग:। 8. वही, वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा । 9. वही, मंदतीवरसकर्मदलविशिष्टन्यासलक्षणानि स्पर्धकानि। 10. वही, स्वपरैकत्वाध्यासे सति विशुद्धचित्परिणामातिरिक्तत्वलक्षणान्यध्यात्मस्थानानि। 11. वही, प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणान्यनुभागस्थानानि । 12. समयसार, आत्मख्याति टीका, गाथा, 50-55, कषायविपाकोद्रेकलक्षणानि संक्लेशस्थानानि । 13. वही, कषायविपाकानुद्रेकलक्षणानि विशुद्धिस्थानानि। 14. वही, चारित्रमोहविपाकक्रमनिवृत्तिलक्षणानि संयमलब्धिस्थानानि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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